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________________ नयरहस्ये वसतिदृष्टान्तः ६५ गुणरूप माना गया है, तथापि " स्याद्वादी" को वह सिद्धान्त मान्य नहीं है । गृहकोण क्षेत्र का परिणाम ही संयोग हैं। इसलिए गृहकोण के साथ देवदत्त का संयोग गृहकोण क्षेत्र का पर्याय ही है । देवदत्तसंयोगात्मक पर्यायरूप से गृहकोणक्षेत्र ही परिणत हुआ है । वैसा गृहकोणक्षेत्र लोकरूप अखण्डक्षेत्र से भिन्न है क्योंकि अखण्डक्षेत्र अधिक आकाशप्रदेश को व्याप्त करता है और गृहको क्षेत्र बहुत अल्पआकाशप्रदेश को व्याप्त करता है । इसलिए दोनों क्षेत्र में विरुद्ध धर्म है । एक में अधिकाकाशप्रदेशव्यापकत्व धर्म है और दूसरे में 'अल्पाकाशप्रदेशव्यापकत्व' धर्म है । धर्म के भेद से धर्मी का भेद माना जाता है इसलिए अखण्डक्षेत्र से गृहकोणक्षेत्र भिन्न सिद्ध होता है । तब गृहकोणप्रदेश की अपेक्षा मध्यगृहप्रदेश गुरुतर होगा, अर्थात् अधिक होगा । मध्यगृहप्रदेश की अपेक्षा से सम्पूर्णगृहप्रदेश गुरुतर होगा । सम्पूर्ण गृहप्रदेश की अपेक्षा से पाटलिपुत्र का प्रदेश गुरुतर यानी अधिक होगा । इस क्रम से लोक का प्रदेश अर्थात् अखण्ड क्षेत्र का प्रदेश सब से गुरुतम होगा । उन गुरु-गुरुतर- गुरुतम प्रदेश विशिष्ट क्षेत्रों में परस्पर भेद होने पर भी लोकक्षेत्र में गृहको क्षेत्र के अभेद का आरोप कर के "लोके वसति" यह प्रयोग होता है । तिर्यग्लोकक्षेत्र में भी गृहकोणक्षेत्र का अभेदारोप कर के “तिर्यग्लोके वसति" ऐसा प्रयोग होता है । इसी तरह जम्बूद्वाप भरतक्षेत्र इत्यादि में भी गृहकोणक्षेत्र का अभेद आरोप करके ही "जम्बूद्वीपे वसति" इत्यादि प्रयोग होता है । "गृहकोणे वसति" इस प्रयोग में अभेद का आरोप नहीं करना पडता, क्योंकि गृहकोण में गृहकोण क्षेत्र का अभेद वास्तविक रूप से रहता ही है । जहाँ जो वस्तु न हो उसमें उसकी बुद्धि का होना ही उपचार पदार्थ है । यह उपचार “गृहकोणे वसति" इस प्रयोग में नहीं है । इसलिए यह प्रयोग अत्यन्त विशुद्धि युक्त है । अतिशुद्ध नैगम के अभिप्राय से यद्यपि यह प्रयोग भी अत्यन्त विशुद्धियुक्त नहीं है क्योंकि अतिशुद्ध वैगम जिस काल में गृहको में चैत्र निवास करता हो उसी काल में "गृहकोणे वसति" इस प्रयोग को अत्यन्त विशुद्धियुक्त मानता है, जिस काल में निवास नहीं करता किन्तु अन्य देश में चैत्र स्थित है उस काल में भी “गृहकोणे वसति" ऐसा प्रयोग नहीं करता है । तथापि 'लोके वसति' इस प्रयोग की अपेक्षा 'गृहकोणे वसति' यह प्रयोग अत्यन्त विशुद्धियुक्त है । 'गृहको वसति' इस में जो विशुद्धि है उस की अपेक्षा "मध्यगृहे वसति" इस में अपकृष्ट विशुद्धि है | "मध्यगृहे वसति" इसमें जो विशुद्धि है उसकी अपेक्षा से "गृहे वसति” इस में कुछ कम विशुद्धि है, तदपेक्षया “पाटलिपुत्रे वसति" इस में कुछ कम विशुद्धि है । इस तरह विशुद्धि के तारतम्य का विश्राम “लोके वसति" इस में है क्योंकि इस में सबसे न्यूनतम विशुद्धि रहती है । इस का कारण यह है कि लोकात्मक अखण्डक्षेत्र तिर्यग लोकादि सखण्डक्षेत्रों की अपेक्षा बहुत विशाल है और उस में अतिसंकुचित गृहको क्षेत्र के अभेद का उपचार है । इस तरह सूक्ष्म विचार करने पर विशुद्धि तारतम्य का हेतुभूत विशेष अवश्य दृष्टि में आ जाता है । वह विशेष यही है कि गुरु, गुरुतर विषयवाले क्षेत्रों में गृहकोण का उपचार करना पडता है । यदि उपचार नहीं माना जाय तो “लोके ९ क्षेत्र के अभेद वसामि” इस
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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