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________________ उपा. यशोविजयरचिते ____ 'कान्यविनिर्मोकेणान्वयोपपत्तौ किमुपचारेणे ति चेत् ? देशाग्रहे तद्विनिर्मोक एव कथम् ? 'पदशक्त्यनुपग्रहादिति चेत् ? न, स्कन्धपरस्य वृक्षपदस्यैकत्वपरिणतिरूपस्कन्धपदार्थनैवोपग्रहात् । 'भेदविनिल ठित एव वृक्षपदार्थ आश्रीयत' इति चेत् ? न अनुभवबाधेन तथाश्रयणाऽयोगादिति दिक् । प्रयोग में लोक पदार्थ और निवास पदार्थ का जो आधाराधेयभाव से अन्वय होता है वह नहीं हो सकेगा। कारण, समग्र लोकक्षेत्र में देवदत्त का निवास नहीं है और समग्र लोकक्षेत्र में रूढियुक्त लाक पद से गृहकोणक्षेत्र की उपस्थिति भी उपचार किए विना नहीं हो सकती है क्योंकि पदार्थ की उपस्थिति पदशक्ति से ही होती है । 'लोक' पद शक्ति गृहकोणक्षेत्ररूप पदार्थ में नहीं है । तब गृहकोणक्षेत्ररूप पदार्थ की उपस्थिति विना गृहकोण पदार्थ और निवास पदार्थ का अन्वय किस तरह हो सकता है ? इसलिए लोकपद की रूढि (शक्ति) से उपस्थित अखण्डक्षेत्ररूप लोकपदार्थ में गृहकोणक्षेत्र पदार्थ का अभेदोपचार करके ही "लोके वसति" इत्यादि व्यपदेश हो सकता है। ('हन्तवम्' इति) यहाँ पर यह शंका उठती है कि "लोके वसति" इत्यादि प्रयोग जैसे उपचार से ही होता है वैसे 'वृक्षे कपिसंयोगः' यहाँ भी उपचार मानना आवश्यक होगा । कारण, सम्पुर्ण वृक्ष में सयोग नहीं है, अर्थात् कपि की आधारता नहीं है। वृक्षावयव शाखा में कपिस योग यद्यपि है, परन्तु वृक्षपद की रूढि सम्पूर्ण वृक्ष में ही है । इसलिए वृक्षपद से वृक्षावयव शाखा की उपस्थिति नहीं हो सकती । तब तो वृक्ष पदार्थ का कपिसयोग पदार्थ के साथ आधाराधेय भाव सम्बन्ध से अन्वय सम्भवित नहीं है । उपचार मानने पर वृक्षपद उपस्थित समग्र वृक्ष में वृक्षावयव शाखा का अभेदारोप होने पर आधाराधेय भाव सम्बन्ध से अन्वय हो सकता है अतः उपचार मानना आवश्यक होगा।' ("कः किमाह") उक्त शंका का समाधान यह है कि उपचार करना पडेगा यह आपत्ति ही हमारे प्रति तभी दे सकते हैं, यदि हम 'वृक्षे कविसयोगः' इस स्थल में उपचार नहीं मानने की प्रतिज्ञा करते, परन्तु यह वस्तुस्थिति नहीं है, क्योंकि हम यहाँ भी उपचार को स्वीकार करते हैं । इसलिए उपचार की आपत्ति अनिष्ट नहीं है, किन्तु इष्ट ही है अर्थात् “वृक्षे कपिसयोगः” यहाँ हमारे मत से उपचार ही होता है। [समग्रता को त्याग देने से विना उपचार अन्वय होने की शका का उत्तर ] ("कात्यविनिर्मोकेण" इति-) यदि यह शंका की जाय कि-"वृक्ष कपिस योगः" इस स्थल में वृक्ष पद की शक्ति से समग्रवृक्ष की उपस्थिति यद्यपि होती है, उस दशा में कपिसयोग के साथ वृक्षपदार्थ का आधाराधेयभाव सम्बन्ध से अन्वय सम्भवित नहीं है यह भी सत्य है, तथापि वृक्ष पदोपस्थित वृक्षपदार्थ में विशेषणीभूत कात्स्न्य अर्थात् समग्रता का विनिर्मोक अर्थात् त्याग कर देगे तब वृक्षैकदेश गाग्वा का ही बोध होगा, तब वृक्षैकदेश शाखा का कपिस योग के साथ आधाराधे भाव सम्बन्ध से अन्वय होने में कोई बाधा नहीं है, तब तो उपचार के बिना भी अन्वय सिद्ध हो सकता है,
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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