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________________ ६४ उपा. यशोविजयरचिते नन्वाधारताऽऽधारस्वरूपा तत्संयोगस्वरूपा वा, उभयथापि गृहकोण इव लोकेऽप्येकक्षेत्रतया तदविशेषात् किं विशुद्धितारतम्यं, न ह्यत्र प्रस्थकन्यायवद्वौणमुख्य विषयकृतो विशेषोऽस्तीति चेत् ? सत्यम् , देवदत्तसंयोगपर्यायपरिणतगृहकोणक्षेत्रस्याखण्ड क्षेत्राद्धर्मभेदावेशेन पृथककृतस्य यथारमं गुरुगुरुतरविषयेऽभेदोपचारेण विशुद्धयपकर्षसम्भवात् , अन्यथा 'लोके वसामी'त्यन्वयस्यैवानुपपत्तिः, न हि कृत्स्ने लोके देवदत्तवसतिरस्ति, न च विनोपचारं कृत्स्नलोकरूढाल्लोकपदात्तद्देशोपस्थितिरस्ति । 'हन्तैवं वृक्षे कपिसंयोग इत्यत्राप्युपचारः स्यादिति चेत् ? कः किमाह, स्यादेव । इसलिए 'वसन् वसति' 'निवास काल में मध्यगृह में देवदत्त बसता है' यह उत्तर उपचार रहित होने से अतिशुद्ध नंगमविशेष को ऐसा ही उत्तर मान्य है। ___ (नन्वाधारतेति) यहाँ पर यह आशंका उठती है कि 'आधारता को यदि आधार स्वरूप माने अथवा आधार का जो आधेय के साथ संयोग है, तत्स्वरूप माने, इन दोनों पक्ष में, गृह कोणादिगत आधारता और लोकगत आधारता इन दोनों में कुछ विशेष तो नहीं दीखता है । दोनों आधारताएँ समानरूप से प्रतीत होती हैं, तथा गृहकोणादि ये दोनों आधारत्वरूप समानधर्मतया प्रतीत होते हैं क्योंकि गृहकोणादि और लोक ये दोनों एक ही क्षेत्र हैं, तब 'लोके वसति, गृहकोणे वसति' इत्यादि में विशुद्धितारतम्य किस निमित्त से माना जाय ? यदि कहा जाय कि "प्रस्थक के परम्परया कारण वनगमनादि से अभिमुग बने काष्ठ आदि में कार्यप्रस्थक का उपचार होता है इसलिए वनगमन आदि रूप प्रस्थक गौण है और कार्यप्रस्थक में उपचार नहीं करना पडता है, इसलिए कार्य प्रस्थक मुख्य है । वनगमन में जो प्रस्थक का व्यपदेश होता है उसका विषय प्रस्थक गौण है, और कार्यप्रस्थक में जो प्रस्थक का व्यपदेश होता है उसका विषय मुख्यप्रस्थक है । इस तरह गौण और मुख्य विषय के निमित्त से ही वनगमन आदि में प्रस्थक व्यपदेश और मुख्य प्रस्थक में प्रस्थक व्यपदेश में विशुद्धितारतम्य है । उसी तरह “लोके वसति” “गृहकोणे वसति" में भी गौण मुख्य विषय ही विशुद्धितारतम्य का निमित्त बन सकता है ।" किन्तु ऐसा यहाँ नहीं कह सकते, क्योंकि गृहकोण आदि और लोक ये दोनों एक ही क्षेत्र हैं । यहाँ गौण मुख्य विषय है ही नहीं । कारण एक ही क्षेत्र में गौणत्व और मुख्यत्व इन दोनों विरुद्ध धर्मों का सम्भव नहीं है। ("सत्यमि"ति) प्रस्तुत ग्रन्थ से पूर्वोक्त शंका का समाधान दिया जाता है। यहाँ 'सत्यम्' पद अर्धस्वीकार अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, इस का तात्पर्य यह है कि जिस रीति से आपने विचार किया है उस राति से विचार करने पर विशुद्धि तारतम्य का निमित्त देखने में नहीं आता है यह बात सव है, किंतु सूक्ष्म दृष्ट से तारतम्य का निमित्त अवश्य बुद्धिगत होता है । जैते "स्याद्वाद' सिद्धान्त में देवदत और गृहकोण का संयोग गुणरूप नहीं है, किंतु गृहकोण के पर्यायरूप है । 'यद्यपि वैशेषिक सिद्धान्त" में संयोग
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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