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________________ ६३ नयरहस्ये वसतिदृष्टान्तः निवृत्ति के लिए 'पाटलिपुत्रे वसति' ऐसा जवाब दिया जाता है । पाटलिपुत्र नगर अभी पटना के नाम से प्रसिद्ध है, यह उत्तर जिस नगम विशेष के अभिप्राय से प्रवृत्त हुआ है, उस नैगमविशेष में पूर्वनैगम विशेषों की अपेक्षा से विशुद्धि का स्पष्ट भान होता है, क्योंकि भरत क्षेत्र के दक्षिणार्धभाग में जो आधारता है, तदपेक्षया पाटलिपुत्रगत आधारता संकुचित है । परन्तु इस उत्तर को सुनने पर भी किसी श्रोता को यह आकांक्षा तो जागृत ही रहती है कि 'पाटलीपुत्र के किस गृह में देवदत्त बसता है ?' क्योंकि पाटलिपुत्र में बहुत से घर हैं । इस आकांक्षा की शान्ति के लिए 'देवदत्तगृहे वसति' यह उत्तर प्रवृत्त होता है । यह उत्तर जिस नैगमाभिप्राय से दिया गया है वह नैगमविशेष पूर्व नैगमों की अपेक्षा विशुद्ध है ऐसा जान पडता है, क्योंकि देवदत्तगृहगत आधारता ही इसमें विषय है, जो पाटलिपुत्रगत आधारता की अपेक्षा बहुत न्यून है । तथापि किसी को देवदत्त के घर में पूर्वभाग, पश्चिमभाग, उत्तरभाग, दक्षिणभाग, मध्यभाग उनमें से किस भाग में बसता है ? इस तरह की आकांक्षा विद्यमान ही रहती है । इसकी निवृत्ति के लिए "देवदतमध्यगृहे देवदत्तः वसति" ऐसा उत्तर दिया जाता है । इसका अर्थ यह है कि देवदत्त के गृह में जो मध्यभाग है उसी में देवदत्त रहता है । इस उत्तर से श्रोता की वह आकांक्षा निवृत्त हो जाती है । यह उत्तर जिस नगम विशेष के अभिप्राय से प्रवृत्त होता है वह नगम पूर्व नैग्मों की अपेक्षा से विशुद्ध है क्योंकि इसमें देवदत्तगृह के मध्यभाग में जो आधारता है वही प्रतीत होती है । वह आधारता देवदत्तगृहगत आधारता से अतिन्यून है । परन्तु उक्त सभी नैगमविशेषों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा से उत्तरोत्तर में विशुद्धि होने पर भी अविशुद्धि रहती ही है क्योंकि इन सभी में उपचार का आश्रय लेना पडता है । अन्य के धर्म का अन्य में आरोप करना ही 'उपचार' पदार्थ है । उसके विना ढोके वसति" इत्यादि उत्तरों की निष्पत्ति ही नहीं हो सकती है। कारण, सम्पूर्ण लोक, तिर्यग्लोक, जम्बूद्वीप इत्यादि में देवदत्त की आधारता सम्भवित नहीं है । 'देवदत्त आधारता' देवदत्तप्रतियोगिकस योगानु गितारूप है, अथवा तदरूपेण परिणत गृहमध्यक्षेत्ररूप है । वह सम्पूर्णलोक में अथवा तिर्यग्लोकादि में सम्भवित नहीं है । इसलिए लोक, तिर्यग्लोक, जम्बुद्वीप, इत्यादि में गृहमध्यभागत्व का आरोप करके ही "लोके वसति" इत्यादि उत्तर प्रवृत्त होते हैं । लोक, तिर्यग्लोक, इत्यादि का गृहमध्यभाग अवयव है और ets are rarवी हैं । अतः अवयवी में अवयव धर्म का आरोप इन उत्तरों में होता है । इसलिए ये उत्तर अविशुद्धियुक्त माने जाते हैं । "अतिशुद्ध नैगम" की दृष्टि से " मध्यगृहे वसति" यह उत्तर भी अविशुद्धियुक्त ही है । कारण वह देवदत्त जिस समय निवास का अनुभव मध्यगृह में करता है उस समय में ही मध्य गृह देवदत्ताधारता को मानता है, अन्य समय में नहीं मानता है । इसलिए “मध्यगृहे वसति" इस उत्तर की प्रवृत्ति भी उपचार से ही होती है । निवासानुभवकालीन मध्यगृहत्व का मध्यगृह में आरोप ही यहाँ उपचार है । जिस काल में मव्यगृह में निवासानुभव देवदत्त को होता है तत्कालीन मध्यगृहत्व तत्कालीन मध्यगृह का अपना धर्म है, आरोपित धर्म नहीं,
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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