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________________ उपा. यशोविजयरचिते ____ शब्द समभिरूद्वैवम्भूताम्तु-प्रस्थकाधिकारज्ञगतात् प्रस्थककर्तृगताद्वा प्रस्थकोपयोगादतिरिक्त प्रस्थकं न सहन्ते । निश्चयमानात्मकप्रस्थकस्य जडवृत्तित्वाऽयोगात् , बाह्यप्रस्थकस्याप्यनुपलम्भकालेऽसत्त्वेनोपयोगानतिरेकाश्रयणात्, अन्ततो ज्ञानाऽद्वैतनयाऽनुप्रवेशाद्वा । न च ज्ञानाऽज्ञानात्मकत्वोभयनयविषयसमावेशविरोधात् सकती है । इसलिए मान साधन द्रव्यविशेष और मेय इन दोनों की उपस्थिति मानक्रिया के लिए आवश्यक है । अतः मानसाधन द्रव्यविशेष और उस से परिच्छिन्न धान्य इन दोनों को ही प्रस्थक मानना चाहिए, यह 'ऋजुसूत्र' का अभिप्राय है । [करणत्व और कर्मत्व एक साथ दुर्घट होने की शंका का उत्तर ] यह आशंका हो सकती है कि- "मानक्रिया में करणरूप प्रस्थक है और मानक्रिया में कर्मरूप धान्य है। अब धान्य को करणरूप जो प्रस्थक, तत्स्वरूप मान लिया जाय तो मानक्रिया की करणकुक्षि में धान्य का भी प्रवेश हो जायगा, तब मानक्रिया के कर्म की कुक्षि में धान्य का प्रवेश नहीं होगा, कारण, एकक्रियानिरूपितकरणत्व और कर्मत्व दोनों एकवस्तु में विरोध होने के कारण रह सकते नहीं। तब तो 'प्रस्थक से धान्य मापा जाता है ऐसा व्यवहार नहीं हो सकेगा और इस व्यवहार में धान्य में कर्मत्व की प्रतीति होती है वह नहीं होगी। कारण, धान्य को भी प्रस्थकरूप मान लेने से उस में करणत्व रहता है तो कर्मत्व बुद्धि उस में नहीं होनी चाहिए। तब तो यह व्यवहार "ऋजसूत्र" के मत से बाधित हो जायगा ।"-इस आशंका को अर्धस्वीकार करने के अर्थ में "सत्य" पद का प्रयोग उपाध्यायजी ने किया है। इस का समाधान इस ढंग से किया है कि धान्यरूप एकवस्तु में एकक्रिया निरूपित करणत्व और कर्मत्व इन दोनों का विरोध जो आप बताते हैं, वह कुछ उचित ही है, परन्तु यह विरोध विवक्षाभेद होने पर नहीं रहता है । एक हि धान्यादिवस्तु में जब मानक्रियाकरणत्व की विवक्षा रहेगी, तब वह धान्य करणरूप भी कहा जायगा और जब मानक्रियाकर्मत्व की विवक्षा रहेगी तब वह धान्य कर्मरूप भी माना जायगा इस तरह विवक्षा के भेद से एक धान्यादि वस्तु का करणरूप में अनुप्रवेश और क्रियारूप में अनुप्रवेश हो सकता है । कारण, विवक्षाभेद रहने पर कर्मत्व करणत्व का विरोध नहीं रहता है । इसी विवक्षाभेद के अभिप्राय से 'प्रस्थक से धान्य मापा जाता है' इस तरह के व्यवहार में कोई बाधा नहीं आती है। इस रीति से "ऋजुसूत्र” के अभिप्राय का अधिक विवेचन भी किया जा सकता है इस अभिप्राय का सूचक “दिक" शब्द यहाँ पर भी प्रयुक्त है। [प्रस्थक के दृष्टान्त मे आखरी तीन नयों का अभिप्राय ] ('शब्दसमभिरूढ०' इत्यादि) शब्दनय, समभिरूढनय और एवभूतनय प्रस्थकोपयोग अर्थात्-प्रस्थक के ज्ञान को ही प्रस्थक मानते हैं उस से अतिरिक्त प्रस्थक को नहीं मानते हैं । अर्थक्रिया का हेतु निष्पन्न यानी पूर्णतापन्न प्रस्थक, जो 'ऋजुसूत्र नय' मानता है, वह इन नयों को मान्य नहीं है। जिस प्रस्थक के ज्ञान को ये तीनों नय प्रस्थक मानते
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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