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________________ नयरहस्ये प्रस्थकदृष्टान्तः ऋजुसूत्रस्तु निष्पन्नस्वरूपोऽर्थक्रियाहेतुः प्रस्थकः, तत्परिच्छिन्नं च धान्यमपि प्रस्थक इत्याह, उभयसमाजादेव मानोपपत्तेरेकतराभावे परिच्छेदाऽसम्भवात् । कथं तर्हि 'प्रस्थकेन धान्यं मीयत' इति, करणरूपानुप्रविष्टस्य क्रियारूपाऽप्रवेशात् ? इति चेत् ? सत्यम् , विवक्षाभेदादुभयरूपानुप्रवेशोपपत्तेरिति दिक् । भेद स्पष्ट होने से "ऋजुसूत्र" के मत में संग्रह का प्रवेश सम्भव नहीं है । “अतिशुद्धनगम" "प्रस्थक" में से जिस काल में धान्यमापनरूप अर्थक्रिया होती है उस काल में ही प्रस्थक को प्रस्थक स्वरूप मानता है, जिस का संग्रहनय भी स्वीकार करता है। इसलिए इतने अंश में द्रव्यभेद अर्थात विशेष को “संग्रहनय" मान्यता देता है। ऋजसूत्र की तरह सभी जगह इस को विशेष मान्य नहीं है। यहा "संग्रह" और "ऋजुसूत्र' में भेद है। इस तरह अर्थक्रियाकालीन प्रस्थक व्यक्ति से अर्थक्रिया अकरणकालीन प्रस्थक व्यक्ति का भेद संग्रहनय से जब सिद्ध होता है तब अर्थक्रियाकालीन व्यक्ति में रहा हुआ प्रस्थकत्व सामान्य भी अर्थक्रिया अभावकालीन प्रस्थक व्यक्ति में इस के मत से मान्य नहीं है । ऐसा मानने पर (ऋजुसूत्र के) इस मत में व्यवहार बाध को छोडकर दूसरा कोई भी दोष नहीं आता है । व्यवहार का बाध इसलिए है कि अर्थक्रिया के अभावकालीन प्रस्थक व्यक्ति में भी यह प्रस्थक है एसा जो व्यवहार लोक में होता है वह अब नहीं हो सकेगा, कारण, अर्थक्रियाअभावकालीन प्रस्थक को यह नय अप्रस्थक मानता है अर्थात प्रस्थक से भिन्न मानता है, तब इस के मत में, वैसे प्रस्थक में यह प्रस्थक है' इस तरह का व्यवहार नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रस्थकत्व व्यवहार के प्रति प्रस्थकभिन्नत्व का ज्ञान प्रतिबन्धक बनता है। उपाध्यायजी ने “दिक" शब्द का प्रयोग कर के सूचित किया है कि इस रीति से 'संग्रहनय” का और भी विवेचन किया जा सकता है। [प्रस्थक के दृष्टान्त से ऋजुसूत्रनय का निरूपण ] (ऋजुसूत्रस्तु इत्यादि) ऋजुसूत्र नय दारुछेदन-तक्षण आदि के द्वारा जिस का स्वरूप पन्न अर्थात्- सिद्ध है और धान्यमापनरूप अर्थक्रिया जिस से होती है, ऐसे मानसाधन द्रव्य विशेष को तो प्रस्थक मानता ही है, किन्तु प्रस्थक से परिछिन्न अर्थातनापा हआ जो धान्य, उस में भी 'प्रस्थक' शब्द का व्यपदेश करता है। अर्थात मानक्रिया का साधन और मानक्रिया का कर्म इन दोनों में प्रस्थक शब्द का व्यवहार 'ऋजसूत्र' के मत से मान्य है। इस में ऋजुसूत्र की युक्ति यह है कि परिच्छेद अर्थात् माप तभी हो सकता है, जब मान का साधन काष्ठनिर्मित द्रव्य विशेष और मान का कर्म धान्यादि, इन दोनों का सनिधान हो, अथोत्-ये दोनों उपस्थित हों। इन दोनों में से किसी भी एक का अभाव होने पर माप हो ही नहीं सकता है। जैसे-केवल मापने का साधन मेयवस्तु धान्यादि न हो तो भी मान क्रिया नहीं हो सकती है। वैसे ही मेय द्रव्य धान्यादि होवे और उस को मापने का साधन न होवे तब भी मानक्रिया नहीं हो
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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