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________________ नयरहस्ये प्रस्थकदृष्टान्तः प्रत्येकमनयत्वमाशङ्कनीयम्, तादात्म्येनोभयरूपाऽसमावेशेऽपि विषयत्वतादात्म्याभ्यां तदुभयसमावेशात् । 'विषयत्वमपि कथञ्चित्तादात्म्यमिति तु नयान्तर । क्रूतम्, तदाश्रयणेन ‘अर्थाभिधानप्रत्ययानां तुल्यार्थत्वम्' उक्त इति दिक् । ५९ हैं, वह प्रस्थक का ज्ञान या तो प्रस्थकाधिकारज्ञाता व्यक्ति का हो सकता है अथवा प्रस्थककर्त्ता व्यक्ति का हो सकता है-ऐसा इन नयों का अभिप्राय है । प्रस्थक के विषय में इन तीनों का अभिप्राय एक ही है । प्रस्थक के कार्य को जो जानता है वही पुरुष प्रस्थकाधिकारज्ञातापुरुष कहा जाता है । 'प्रस्थक का कार्य अर्थात् प्रयोजन क्या है ?' इस प्रश्न के समाधान में ये नय यही मानते हैं कि धान्य का परिमाण प्रस्थक का कार्य अथवा प्रयोजन अथवा अधिकार शब्द से कहा जाता है । 'प्रस्थक से धान्य मापा जाता है' इस प्रकार का ज्ञान ही धान्य परिमाण के निश्चय का स्वरूप है । प्रस्थक निर्माण जो पुरुष करता है वह प्रस्थककर्त्ता कहा जाता है। दोनों प्रकार के पुरुषों में विद्यमान जो प्रस्थकोपयोग अर्थात् प्रस्थकज्ञान वही प्रस्थक है, इन तीनों नयों के मत का यही सारांश है । " निश्चयमानात्मक " इस ग्रन्थ से प्रस्थकोपयोग से अतिरिक्त प्रस्थक को न स्वीकार करने में हेतु बताया गया है । 'यह धान्य प्रस्थकपरिमित है' इत्याकारक निश्चयमानरूप प्रस्थकोपयोग चेतन में ही रह सकता है क्योंकि ज्ञानरूप उपयोग चेतन का ही धर्म है । पूर्णताप्राप्त द्रव्यप्रस्थक यदि उक्त उपयोग का आधार माना जाय तो वह उपयोग जडवृत्ति हो जाने का अतिप्रसंग होगा क्योंकि ज्ञानरूप प्रस्थक जड में वृत्ति नहीं हो सकता है, वह चेतन में ही रह सकता है । - " बाह्यप्रस्थकस्ये" ति ) शंका- 'धान्य जिससे मापा जाता है ऐसे बाह्यवस्तु विशेष का भी प्रस्थकपद से लोक में व्यवहार किया जाता है । वह बाह्यवस्तुविशेषरूप प्रस्थक तो जड ही है और भूतलादि जडपदार्थों में ही वह स्थित रहता है । तब तो प्रस्थक में जडवृत्तित्व भी सम्भव है, इसका निषेध करना संगत नहीं प्रतीत होता है ।' उत्तरः-‘मानाधीनामेयसिद्धि:' इस नियम के अनुसार ज्ञानकाल में ही बाह्यप्रस्थक की सत्ता मान्य है । जिस काल में बाह्यप्रस्थक का उपलम्भ अर्थात् ज्ञान नहीं है उस काल में उसकी सत्ता ही असिद्ध है । जब बाह्यप्रस्थक का उपलम्भ रहता है उसी काल में बाह्यप्रस्थक की सत्ता सिद्ध रहती है । इस हेतु से बाह्य प्रस्थक को भी उपयोग से भिन्न ये तीनों नय नहीं मानते हैं, किन्तु उपयोगरूप ही मानते हैं । अतः प्रस्थक में जडवृत्तित्व नहीं हो सकता है । [ तीनों शब्दादिनयों का ज्ञानाद्वैतवाद में प्रवेश ] यद्यपि "जब जिस का उपलम्भ होता है तभी उस की सत्ता होती है" ऐसा नियम मानने पर भी उपलभ्यमान वस्तु की ज्ञानकाल में बाह्यस्वरूप से सत्ता हो सकती है । तब उपयोग से भिन्न बाह्यप्रस्थक सिद्ध हो सकता है और उस में जडवृत्तित्व भी हो सकता है, तब उक्त समाधान असंगत जैसा लगता है; तथापि 'जो जिस के साथ उप
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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