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________________ नयरहस्ये प्रदेशदृष्टान्तः ४७ धर्मास्तिकाय का प्रदेश है' इस तरह की भजना का प्रसंग भी आ सकता है। इसी रीति से जीवास्तिकाय इत्यादि के प्रदेशों में धर्मास्तिकायसम्बन्धित्व की भजना का प्रसंग आ सकता है । अत: "ऋजुसूत्रसम्मत भजना" युक्त नहीं है। [शब्दनय का प्रदेश के विषय में अभिलापाकार] इस प्रकार ऋजुसूत्रमत की अयुक्तता प्रदर्शित करके शब्दनय स्वमत में क्या होना चाहिये यह बता रहा है कि 'तदेवमभिधेयम्' इत्यादि-'धर्मे धर्म इति वा प्रदेशो धर्मः' यहाँ वा शब्दसूचित दो वाक्य इस प्रकार हैं-'धर्म प्रदेशो धर्मः' अर्थात् सप्तमी तत्पुरुष समासारम्भक वाक्यप्रयोग और दूसरा 'धर्मः प्रदेशो धर्मः' अर्थात् कर्मधारयसमासारम्भक वाक्यप्रयोग । प्रथमवाक्य का तात्पर्य यह है कि धर्म में अर्थात् धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह धर्मास्तिकाय रूप है-अन्य नहीं । दूसरे का भी यही तात्पर्य है कि धर्मास्तिकाय से अभिन्न जो प्रदेश है वही धर्मास्तिकायस्वरूप है-अन्य नहीं। इस प्रकार के वाक्यप्रयोग से वह आपत्ति नहीं होगी जो ऋजुसूत्रमत से भजना के स्वीकार में होती थी चूकि यहाँ स्पष्ट नियमन ही किया गया है कि धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है व धर्मास्तिकायात्ताक ही है-अधर्मास्तिकायादिस्वरूप नहीं है। अधर्मास्तिकाय के प्रदेश के बारे में भी यही कहना चाहिये कि 'अधर्म अधर्भ इति वा प्रदेशोऽधर्मः' अर्थात् अधर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह अधर्मास्तिकायरूप है-धर्मास्तिकायात्मक नहीं है । अथवा अधर्मास्तिकाय से अभिन्न जो प्रदेश है वह अधर्मास्तिकायरूप ही है-धर्मास्तिकायस्वरूप नहीं है। इसी प्रकार 'आकाशे आकाशः इति वा प्रदेश आकाशः' यहाँ भी समझा जा सकता है। [नोजीवः' शब्दप्रयोग का तात्पर्य वशेष] 'अत्र धर्माधर्मा०'-जीव के बारे में वाक्यप्रयोग की रीति में थोडा सा अन्तर है वह यह कि- 'जीवे जीव इति वा प्रदेशो नोजीवः', यहाँ अन्त में 'नो' शब्दयुक्त जीवशब्द का प्रयोग है । धर्मास्तिकाय आदि में 'नो' शब्दमुक्त प्रयोग था-इस का कारण यह है कि धर्म-अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य, संख्या से एक एक व्यक्तिरूप होने से धर्मास्तिकायादि के प्रदेश को सम्पूर्ण धर्मास्तिकायात्मकता सुघटित है किन्तु जीव संख्या से अनन्त है और किसी एक जीवप्रदेश सकलजीवसन्तान अर्थात् सम्पूर्ण जीवराशि से अभिन्न तो है नहीं किन्तु सकलजीवसन्तान का जो एकदेशभूत एक जीव है-केवल उसी से ही अभिन्न है। इसलिये एकदेश को सूचित करनेवाले 'नो' शब्द के प्रयोग से ही उस का प्रतिपादन करना उचित है । पुद्गल, जिस के लिये यहाँ स्कन्ध शब्द प्रयुक्त हआ है वह भी संख्या से अनन्त है इसलिये वहाँ भी 'स्कन्धे स्कन्ध इति वा प्रदेशो नोस्कन्धः' इस प्रकार का अभिलाप ही होगा । यहाँ भी 'स्कन्धे प्रदेश: नोस्कन्धः' इस प्रथम वाक्य से स्कन्ध (पुदगल) का जो प्रदेश है वह सकल स्कन्धराशि अन्तर्भूत एकदेशात्मक जिस स्कन्ध का है उसी स्कन्ध से उरः का तादात्म्य है यह अर्थ भासित होता है-दूसरे वाक्य प्रयोग में स्कन्ध से अभिन्न प्रदेश, सकलस्कन्धराशि एकदेशभूत जिस स्कन्ध से अभिन्न है उस एकदेशीय स्कन्धात्मक है यह अर्थ प्रतीत होता है। इस प्रकार
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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