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________________ उपा. यशोविजय रचित समभिरूढस्त्वाह-शब्देनापि न सूक्ष्ममीक्षांचक्रे 'धर्म प्रदेश' इत्यादिवाक्यात् 'कुण्डे बदरमि'त्यादेवि भेदप्रसङ्गात् । क्वचिद् भेदे सप्तमीप्रयोगेऽप्यभेदप्रकारकबोधार्थ कर्मधारयस्यैवावश्याश्रयणीयत्वाद् द्वितीयपक्ष एव युक्त इति । के वाक्यप्रयोग से ऋजुसूत्रमत में दिया गया अतिप्रसंग दोष नहीं आता है क्योंकि यहाँ भजना नहीं की जाती किन्तु नियमन किया जाता है। ___ इस संदर्भ में उपाध्यायजी ने जो ‘सन्तान' शब्द का प्रयोग किया है वह यह सूचित करने के लिए कि न्याय-वैशेषिकादिमत में जैसे आत्मा और आकाशादि को निरवयव अर्थात् प्रदेश-प्रदेशी भावशून्य माना गया है वैसा जैन मत में नहीं है किन्तु परमाणुपुद्गल के विना पाँचों द्रव्य असंख्य अथवा अनन्तप्रदेश के सन्तानात्मक (समुदायात्मक) हैं। पूर्वापर भाव से अवस्थित पदार्थसंघात को ही सन्तान कहते हैं जैसे बौद्धमत में पूर्वापर भाव से अवस्थित प्रथमक्षण, द्वितीयक्षण, तृतीयक्षण यावत् अन्त्यक्षण आत्मक घटक्षणों के समूह को ही घटसन्तान कहा जाता है। अंतर इतना है कि बौद्धमताभिमत घटसन्तान में कालिक पूर्वापरभाव है जब कि यहाँ जनमत में जीवसन्तान, आकाशसन्तानादि सन्तानों में उस के घटकप्रदेश दैशिकपूर्वापर भाव से संगठित होकर अवस्थित होते हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीन, केवल एक एक सन्तानात्मक ही है अर्थात् सन्तानबाहुल्य (व्यक्तिबाहल्य) ये तीनों में नहीं है । जीवसन्तान और स्कन्ध (पुद्गल) सन्तान अनन्त हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय के प्रश कभी भी अपने प्रदेशी से पृथक् नहीं हो पाते । स्कन्ध के प्रदेश कभी उस से अलग भी हो जाते हैं । फिर भी अवयव और अवयवी का न्यायवशेषिक मत में जैसे एकान्त भेद होता है अथवा एवंभूत नय को जैसे देश-प्रदेश कल्पना शून्य ही अखण्डवस्तु अभिप्रेत है वसा शब्दनय मत में नहीं है, किन्तु देश-प्रदेश कल्पना भी है और उन में कथंचिद् भेदाभेद भी स्वसिद्धान्तसम्मत है । [प्रदेश दृष्टान्त से समभिरूढनय का निरूपण] "समभिरूढे" इत्यादि- "समभिरूढनय" का कहना है कि शब्दनय में भी सूक्ष्मविचार नहीं किया है। कारण, 'धर्मे प्रदेशः” ऐसा वाक्यप्रयोग जो शब्दनय मानता है, वह संगत नहीं है क्योंकि "धर्म में" ऐसा सप्तमीप्रयोग अर्थात्-सप्तमी के अर्थ का बोध जिससे हो, ऐसा प्रयोग शब्दनय के मर से होता है । सप्तमी विभक्ति का अर्थ तो आधाराधेय भाव होता है । आधाराधेय भाव वहीं माना जाता है, जहाँ परस्पर भेद हो । जैसे-"कुण्ड में बदर है' इस वाक्यप्रयोग में कुण्ड में आधारता की प्रतीति होती है, और बदर में आधेयता की प्रतीति होती है, तथा कुण्ड और बदर में परस्पर भेद भी प्रतीत होता है। ऐसे ही धर्म और प्रदेश में भेद का प्रसंग आ जायगा, जो इष्ट नहीं है । इसी लिए "शब्दनय” का दर्शन सूक्ष्मतायुक्त नहीं है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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