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________________ नयरहस्ये प्रदेशदृष्टान्तः देशप्रदेशौ नातिरिच्यते "दासेन मे०" (खरः क्रीतो, दासो मम खरोऽपि मे ॥)" इत्यादिन्यायाद् देशस्य स्वीयत्वेन तत्प्रदेशस्यापि स्वीयत्वाऽव्यभिचारात् "पञ्चानामेव प्रदेशः" इति सङ्ग्रहः ॥ व्यवहारस्त्वाह-पञ्चानां प्रदेशस्तदा स्याद्यदि साधारणः स्यात्, यथा पञ्चानां गोष्ठिकानां हिरण्य मिति । प्रकृते तु प्रत्येकवृत्तिः प्रदेश इति 'पञ्चविधः प्रदेशः' [प्रदेश दृष्टान्त से नैगमनय का निरूपण] "तथाहिः” इति-“प्रदेश" दृष्टान्त से नयों में विशुद्धि का प्रदर्शन "तथाहि" इत्यादि ग्रन्थ से करते हैं। इन नयों में प्रथम "नैगमनय' धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, जीव, स्कन्ध और इन पाँचों का देश-इस प्रकार छ वस्तुओं के प्रदेश को मानता है। यहाँ पुद्गल शब्द छोड कर स्कन्ध शब्द के प्रयोग का कारण यह है कि “ स्कन्ध" पद से "स्कन्धात्मक" पुदगल द्रव्य ही विवक्षित है, परमाणु स्वरूप पुदगल द्रव्य नहीं, क्योंकि परमाणुरूप पुद्गल तो स्वयं प्रदेशरूप है उसका न तो देश है न प्रदेश है। ऐसे ही काल द्रव्य का भी देश अथवा प्रदेश नहीं होता है क्योंकि वह स्वयं विशुद्ध समयरूप है, इसलिये उसका ग्रहण नहीं किया है यह ध्यान में रखना चाहिए । [प्रदेश दृष्टान्त से संग्रहनय का निरूपण] "देशप्रदेशौ०" इति-संग्रहनय का मत यह है कि यदि धर्मादि का अपने देश में स्वीयत्व-स्वसम्बन्धित्व विद्यमान है तो धर्मादि देश के प्रदेश में भी स्वीयत्व अवश्य आ जाता है । जैसे-कोई व्यक्ति का दास अर्थात्-भृत्य यदि 'खर' याने गर्दभ को बिकत लेवे तो वह व्यक्ति अपने दास से गृहीत उस गर्दभ को भी अपना दास ही समझता है, क्योंकि अपने दास में उस व्यक्ति को स्वीयत्व बुद्धि है । इसलिए दास सम्बन्धी गर्दभ में भी स्थीयत्व बुद्धि उसको होती ही है । इस न्याय से धर्मादि देश में जब स्वीयत्व रहता है, तब धर्मादि देश सम्बन्धी प्रदेश में भी स्वीयत्व का रहना अनिवार्य है। अतः धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, स्कन्ध इन पाँच का ही प्रदेश संग्रहनय मानता है। धर्मादि के देशों का प्रदेश जैसे-नैगमनय मानता है, वैसे-संग्रहनय नहीं मानता है, यही नैगमनय की अपेक्षा से संग्रहनय की प्रदेश दृष्टान्त से शुद्धियुक्तता है। [प्रदेश दृष्टान्त से व्यवहारनय का निरूपण] "व्यवहार०" इत्यादि-संग्रहनय के समान व्यवहारनय-'धर्माधर्मादि पाँचों का प्रदेश है'-एसा नहीं मानता है । इस का आशय यह है कि जो एक वस्तु अनेक वस्तुओं का सम्बन्धि हो उसी में अनेकवस्तुसम्बन्धिता का व्यवहार मान्य होता है। जसे एक गोष्ठि में रहनेवाले पाँच व्यक्तिओं का स्वामित्व जिस बहुमूल्यक सुवर्णखण्ड में हो, उस सुवर्ण खण्ड के लिए ऐसा व्यवहार होता है कि 'पांचों व्यक्तिओं का यह सुवर्ण वण्ड है' क्योंकि
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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