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________________ उपा. यशोविजय रचित इति भणितव्यम् । नन्वेवं 'घटपटयो रूपमि'त्यपि न स्यात्, द्वित्वाश्रयवृत्तित्ववोधे 'तयोर्धटरूपमि'त्यस्याप्यापत्तेः, द्विवृत्तित्वबोधे च प्रकृतप्रयोगस्याप्यनापत्तेरिति चेत् ? न स्यादेव, एतादृशस्थले समुदितवृत्तित्वबोध एव व्यवहारसामर्थ्यात्, सङ्ग्रहाश्रयणात्तु सामान्यत एव साकांक्षत्वात् स्यादपि ॥ वह सुवर्णखण्ड पांचों व्यक्तियों से सम्बन्धित है। उसी तरह धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और स्कन्ध (पुद्गल) इन पांचों से सम्बन्धित कोई एक प्रदेश होता तब वह सर्वसाधारण प्रदेश कहा जाता और तब 'पांचों का यह प्रदेश है' ऐसा व्यवहार हो सकता था, परन्तु पांचों से सम्बन्धित कोई एक साधारण प्रदेश तो है नहीं, किन्तु जो धर्म का प्रदेश है उस से भिन्न ही अधर्म का प्रदेश है, जो अधर्म का प्रदेश है उस से भिन्न ही आकाश का प्रदेश है । उसी तरह जीव का प्रदेश और स्कन्ध (पुदगल) का प्रदेश भिन्न भिन्न है। इस हेतु से कोई भी प्रदेश साधारण न होने के कारण 'पाँचों का यह प्रदेश है' ऐसा व्यवहार सम्भव नहीं है। तब तो 'यह धर्म का प्रदेश है, यह अधर्म का प्रदेश है, यह आकाश का प्रदेश है, यह जीव का प्रदेश है,' ऐसा ही व्यवहार करना होगा। अतः 'प्रदेश पाँच प्रकार का है' एसा ही व्यवहार नय मानता है । ['घटपटयो रूपम्' इस प्रयोग के न होने की आपत्ति की शंका] "नन्वेमि'त्यादि-यहाँ यह आशंका होती है कि-"घट और पट इन दोनों में रूप है' ऐसा व्यवहार होता है । वह व्यवहार व्यवहारनय के मत में नहीं होगा, कारण, जो रूप घट में है वह पट में नहीं है, और जो रूप पट में है वह घट में नहीं है। इसीलिए किसी एक रूप में घट-पट उभय की सम्बन्धिता नहीं है। यदि दोनों का एक साधारण रूप होता, तब तो उभयसम्बन्धिता होती, तब उक्त व्यवहार भी हो सकता, वह तो है नहीं। इसलिए 'घट-पट इन दोनों में रूप है' ऐसा व्यवहार नहीं होगा । इस आशंका के समाधान में यदि ऐसा कहा जाय कि-"घट-पट इन दोनों में रहा हुआ जो द्वित्व, तदाश्रय निरूपित वृत्तिता ही रूप में इस प्रतीति का विषय है और वह रूप में अबाधित है, क्योंकि द्वित्व का आश्रय घट है, तन्निरूपितवृत्तिता घटीय रूप में है वैसे ही द्वित्व के आश्रय पट के रूप में भी है, तब तो 'घट-पट इन दोनों में रूप है' ऐसा व्यवहार करने में कोई बाध नहीं है ।"-तो यह समाधान भी समीचीन नहीं लगता है क्योंकि तब तो 'घट-पट दोनों में घटरूप है' ऐसा भी व्यवहार प्रामाणिक बन जायगा क्योंकि घट-पट गत द्वित्व का आश्रय घट भी है, पट भी है, उस में पटनिरूपितवृत्तिता घट रूप में यद्यपि नहीं है तथापि द्वित्वाश्रय जो घट, तन्निरूपितवृत्तिता तो घट रूप में है, इसलिए घट और पट, इन दोनों में घटरूप है, इस व्यवहार में या प्रतीति में कोई बाधक नहीं है । इस आपत्ति को दूर करने के लिए यदि “घट और पट इन दोनों में रूप है" इस वाक्य का ऐसा अर्थ करेंगे कि-घट-पट उभय निरूपितवृत्तिताश्रय रूप है, तब तो पूर्वोक्त प्रतीति में यद्यपि प्रामाणिकता की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि घटरूप में घट-पट उभय निरूपितवृत्तिता बाधित है । तथापि ऐसा अर्थ करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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