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________________ उपा. यशोविजय रचित ___ पर्यायार्थिकस्य त्रयो भेदाः-"शब्दः, समभिरूढः, एवम्भूतश्चेति' सम्प्रदायः। "ऋजुसूत्राद्याश्चत्वार” इति तु वादी सिद्धसेनः । तदेवं सप्तोत्तरभेदाः ।। ___शब्दपदेनैव साम्प्रतसमभिरूढैवम्भूतात्मकनयभेदतयोपसङ्ग्रहात्पञ्चेत्यादेशान्तरम् । ते च प्रदेश-प्रस्थक-वसतिदृष्टान्तैर्यथाक्रामं विशुद्धिभाजः । तथाहि-नैगमनयस्तावद्धर्माऽधर्माकाशजीवस्कन्धानां तद्देशस्य चेति षण्णां प्रदेशमाह । में ही प्रवृत्त होते हैं जैसे कि वर्तमान वस्तु में सूक्ष्म पर्यायविशुद्धि की अपेक्षा से साम्प्रतनय प्रवृत्त होता है, वर्तमानवस्तु में ही सूक्ष्मतर पर्यायविशुद्धि की अपेक्षा से साभिरूढ प्रवृत्त होता है, तथा वर्तमानवस्तु में ही सूक्ष्मतम पर्याय विशुद्धि की अपेक्षा से एवम्भूत प्रवृत्त होता है । तब ऋजुसूत्र के विषय में प्रवृत्त होनेवाले इन तीनों शब्दनयों में भी द्रव्यार्थिकन्ध अवश्य आ जायगा। इस हेतु से ऋजुसूत्र में द्रव्यार्थिकत्व का अभ्युपगम करना योग्य नहीं है, ऐसा श्री सिद्धसेन दिवाकरजी का आशय है।। "पर्यायार्थिकस्येति'ति-पर्यायार्थिक के तीन भेद हैं-शब्द, समभिरूढ और एवम्भृत । यह सम्प्रदाय का मत है, अर्थात् परम्परा का मत है । यह मत जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणआदि आचार्यों का है। वादी सिद्धसेन तो पर्यायाथिक के चार भेद मानते हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत । इस तरह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों के अवान्तर भेदों का संकलन करने पर नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये सात प्रकार नय के सिद्ध होते हैं । "शल पदेनैवेति-किसी आचार्य के मत से नय के पाँच ही भेद हैं-नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र और शनिय । इस मत में साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भत हुन नयों के लिये साधारण 'शब्दनय' शब्द के प्रयोग से उसमें उनका अन्तर्भाव मान लिया जाता है, इसलिए नयों की संख्या पाँच ही सिद्ध होती है । "ते चे०" ति-वे पूक्ति सात प्रकार के नयों में पूर्व पूर्व नयों की अपेक्षा उत्तरोतर नय “प्रदेश-प्रस्थक और वसति" इन दृष्टान्तों के द्वारा विशुद्धियुक्त माने गये हैं। अर्थात्-नगम की अपेक्षा से संग्रह विशुद्ध है, संग्रह की अपेक्षा से व्यवहार विशुद्ध है। व्यवहार की अपेक्षा से ऋजुसूत्र विशुद्ध है, ऋजुसूत्र की अपेक्षा से शब्दनय विशुद्ध है और शब्दनय की अपेक्षा से समभिरूढ विशुद्ध है, समभिरूढ की अपेक्षा से एषम्भूतनय विशुद्ध है, इस तरह क्रमिक विशुद्धि उत्तरोत्तर नयों में है। वस्तु के स्थूल स्वरूप को न पकड कर उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म स्वरूप पर ध्यान खिचना-यह विशुद्धि शब्द का अभिप्राय है। * स्कन्ध शब्दका पारिभाषिक अर्थ है कोई भी अखंड द्रव्य या उसका कोई एक खंड । उसके एक उपखड को ही देश कहा जाता है और उसी के चरम अविभाज्य अंश को प्रदेश कहा जाता है। यहाँ स्कन्ध शब्द महाकाय पुद्गलद्रव्य के लिये प्रयुक्त है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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