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________________ नयरहस्य २७ न च भेदाभेदाद्यसमावेश एव, अनुभवबाधात् । न च सामान्यतोऽसमावेशव्याप्तिकल्पनादनुभव भ्रान्तत्वम्, प्रतियोग्यादिगर्भतया विशिष्टस्यैव भेदाभेदाद्यसमावेशव्याप्तिकल्पनादिति तु तत्त्वम् । वस्तु में भेदाभेदात्मकत्व होने से जात्यन्तरत्वरूप हेतु हैं और भेदात्मकत्व प्रयुक्त भेदव्यवहाररूप प्रत्येककार्य होता है तथा अभेदात्मकत्वप्रयुक्त अभेद व्यवहार स्वरूप प्रत्येक कार्य भी होता है अतः प्रत्येक कार्यकारित्व ही भेदाभेदात्मक प्रत्येक वस्तु में है अतः प्रत्येक कार्याsकारित्व साध्य का व्यभिचारी सिद्ध होता है । [ प्रत्येक कार्याsकारित्व का अनियम अनिष्टापादक नहीं है- उत्तर] इस शंका का समाधान “ तथापि" इत्यादि पंक्ति से दिया जाता है कि यद्यपि जात्यन्तरत्व होने पर भी जो प्रत्येक कार्यकारित्व होता है, वह स्याद्वादी को अत्यन्त अनिष्ट नहीं है, क्योंकि दाडिम के दृष्टान्त से जो जात्यन्तरत्व और प्रत्येककार्याकारित्व में व्याप्ति बनायी गई है वह दृष्टान्त उतने ही अंश में ग्राह्य है, जितने अश में विभिन्न धर्मो का परस्पर व्याप्त होकर समावेश होता है । जैसे- दाडिम में जात्यन्तरत्व होने पर भी स्निग्धत्व - उष्णत्व विभिन्न धर्मो का परस्पर अभिव्याप्त होकर समावेश है और यहाँ व्यभिचार नहीं है, जात्यन्तर होने से प्रत्येक पक्षोक्त दोषों का वारण भी होता है, अनेकात्मकत्व की सिद्धि भी होती है । अन्यस्थल में नृसिंह दृष्टान्त से जो अनेकान्तात्मकत्व की सिद्धि की गई है, वह भी स्याद्वादी को इष्ट ही है । अन्तर इतना है कि नृसिंह दृष्टान्त से नरत्व - सिंहत्व का परस्पर अभिव्याप्त होकर एकवस्तु में समावेश नहीं है, किन्तु अवच्छेदक भेद से एकवस्तु में समावेश है, इस समावेशमात्र को लेकर जैसे नृसिंह शरीर नरात्मक और सिंहात्मक होने से अनेकान्तात्मक हैं, वैसे ही वस्तु में भेदाभेदादिविरुद्धधर्म भी " अन्य अन्य भागावच्छेदेन समाविष्ट " माना जाय तो भी प्रत्येक वस्तु में अनेकान्तात्मकत्व की सिद्धि में कोई बाघ नहीं होता है । इसीलिए अभियुक्तों का यह वचन प्रमाणित सिद्ध होता है "भागे सिंहो नरो भागे, योऽसौ भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन नरसिंहं प्रचक्षते ॥ [ 1 = नृसिंह शरीर के ऊपर के भाग में सिंहत्व है और अधोभाग में नरत्व है तो भी विभाग की विवक्षा को न कर के नरसिंह पद से व्यवहार किया जाता है और विभाग की विवक्षा होने पर नरत्व और सिंहत्व का भी व्यवहार होता है । उसी तरह भेदाभेदात्मक वस्तु में, भेदात्मकत्व विवक्षा से भेदव्यवहार और अभेदात्मकत्व विवक्षा से अभेद व्यवहार भी होता है, तो भी वस्तु में भेद और अभेद इन दोनों का समावेश होने के कारण अनेकान्तात्मक भी है । नृसिंह दृष्टान्त का यही तात्पर्य है । [ भेदाभेदोभय का एकत्र सर्वथा असमावेश अनुभवविरुद्ध है ] " न च भेदाभेदे 'ति - यहाँ यह आशंका उठती है कि - "एकवस्तु में भेद और अभेद इत्यादि विरुद्धधर्मो को जो स्याद्वादी मानते हैं, यह बात अयुक्त प्रतीत होती है क्योंकि
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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