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________________ उपा. यशोविजय रचित यद्यपि जात्यन्तरत्वं न प्रत्येककार्याऽकारित्वेन नियतं, भेदाभेदेन भेदाभेदव्यवहारात्-तथापि विभिन्नधर्मयोरभिव्याप्य समावेश एवोक्तनिदर्शनम् , अन्यत्रोक्त नृसिंहनिदर्शनं तु समावेशमात्र एव, तत्र नृत्वसिंहत्वयोरन्यान्यभागावच्छेदेनैव समावेशात् । आता है । तब तो भेदाभेदात्मक एकवस्तु में जात्यन्तर स्वीकार कर के प्रत्येक पक्षोक्त दोष का वारण नहीं हो सकता है।"-इस का समाधान उपाध्यायजी देते हैं कि माष में स्निग्धत्व और उष्णत्व जात्यन्तरात्मक नहीं है । क्योंकि जहाँ पर परस्पर अनुवेध सम्पूर्णतया होता है, वहाँ स्वभावान्तरत्व माना जाता है, और उस स्वभावान्तरत्व का निमित्त बनाकर जात्यन्तरत्व भी माना जाता है। माष में स्निग्धत्व-उष्णत्व का परस्पर अनुवेध सम्पूर्णतया नहीं है, किन्तु खण्डशः है । अर्थात्-माष के अमुक भाग में स्निग्धत्व और उस से अतिरिक्त द्वितीयभाग में उष्णत्व है। जैसे-"गुजाफल' (चणोठी) में एकभाग को व्याप्त कर के रक्तत्व रहता है और अन्यभाग को व्याप्त कर के कृष्णत्व रहता है, सम्पूर्ण गुंजाफल को व्याप्त कर के न तो कृष्णत्व रहता है और न तो रक्तत्व ही रहता है । उसी तरह माष में एकभाग को व्याप्त कर के स्निग्धत्व रहती है और अपरभाग को व्याप्त कर के उष्णत्व रहता है, सम्पूर्ण माष को व्याप्त कर के न तो स्निग्धत्व रहता है, न उष्णत्व ही रहता है । इसलिए माष में जात्यन्तरत्वरूप हेतु ही नहीं है । तब यदि 'प्रत्येक दोष निवर्तकत्व'रूप साध्य न रहा तो उक्त नियम में व्यभिचार नहीं आता है, क्योंकि साध्य जहाँ न रहे वहाँ हेतु का रहना ही व्यभिचार है और जात्यन्तरत्व रूप हेतु माष में नहीं है । इसलिए कथञ्चित् भेदाभेदउभयात्मक वस्तु में प्रत्येक पक्षोक्त दोष का वारण करना उचित ही है। दाडिम में स्निग्धत्व और उष्णत्व ये दोनों स्वभाव सम्पूर्ण में व्याप्त रहता है, इसलिए वह जात्यन्तरात्मक है, तत्प्रयुक्त कफ और पित्त इन दोनों दोषों की उत्पत्ति दाडिमसेवन से नहीं होती है, यह तो सभी को इष्ट है, परन्तु उस का प्रयोजक जात्यन्तरात्मकत्व ही है । दाडिम में कफ और पित्त ये उभयदोषकारिता नहीं है, इस में प्राचीन आचार्य के वचन को प्रमाणरूप से साक्षि देते हैं-"स्निग्धोग दाडिमं रम्य" इत्यादि । दाडिम स्निग्धोष्णस्वभाव है, इसीलिए रम्य है, अर्थात् हृदय प्रिय है, और श्लेष्म और पित्त का अविरोधि है। यहाँ “अविरोधि" पद से यह अर्थ निकलता है कि दाडिम जसे श्लेष्मपित्त का विरोधि नहीं है उसी प्रकार श्लेष्म और पित्त का उत्पादक भी नहीं है, इसलिए "श्लेष्मपित्तरूप दोषद्वयअकारित्व" इस में घटता है, और वह इष्ट भी है । यह परम्परा की मान्यता है। [प्रत्येक कार्याऽकारित्व और जात्यन्तरत्व में अनियम की आशंका ___ "यद्यपी"ति-यहाँ यह आशंका होती है कि "आपने जो जात्यन्तरत्व का स्वीकार कर के प्रत्येक पक्षोक्त दोष का निवारण किया है, यह उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जहाँ जहाँ जात्यन्तरत्व है, वहाँ वहाँ प्रत्येक कार्याऽकारित्व रहता है ऐसी व्याप्ति ही नहीं बन सकती है । क्यों कि भेदाभेदात्मक वस्तु में इस व्याप्ति का व्यभिचार आता है । जैसे,
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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