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________________ ૨૮ उपा. यशोविजय रचित विरुद्धधर्म जो गोन्य अश्वत्य हैं, उनका किसी एक धर्मी गो अथवा अश्व में समावेश देखा नहीं जाता है। तब दृष्टविपरीत वस्तु का स्वीकार करना स्याद्वादियों के लिये ठीक नहीं है । इसलिए नेद-अभेद, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि विरुद्ध धर्मो का एकवस्तु में समावेश होता ही नहीं है। इस आशंका का समाधान “अनुभवबाधात्" इस पंक्ति से दिया जाता है कि गोत्व-अश्वत्व आदि विरुद्ध धर्मा' का एक धर्मी में अनुभव किसी को नहीं होता है, इसलिए उनका एक धर्मी में समावेश भले न हो, परन्तु जिन विरुद्ध धर्मो का एक धर्मी में अनुभव होता है, उन विरुद्ध धर्मों के एक धर्मी में समावेश को गोत्व-अश्वत्व आदि विरुद्ध धर्मों के दृष्टान्त से न मानना अनुभवविरुद्ध होगा। घटात्मक वस्तु का विशेष रूप से अनुभव होता है। 'यह घट द्रव्य विशेषरूप है' यही विशेषानुभव है, इसलिए घट में भेद भी रहता है । विशेष को ही भेद कहते हैं, क्योंकि विशेष और भेद ये दोनों शब्द पर्यायवाचक है । उसी घट में 'यह द्रव्य है' इसतरह सामान्य रूप से भी अनुभव होता है इसलिए अभेद भी घटात्मक वस्तु मे अनुभवसिद्ध है। अतः भेदाभेदात्मक घट की अनुभव से सिद्धि होती है। यदि घट में भेद और अभेद इन विरुद्ध धर्मों का समावेश न माना जाय तो अनुभव का बाध उपस्थित होगा । अनुभवानुसार ही वस्तु की व्यवस्था सभी वादी को इष्ट है, इसलिए वस्तु में भेदाभेदादि विरुद्ध धर्मा का समावेश मानना ही योग्य है। [विरुद्ध उभयधर्मों के एकत्र समावेश का अनुभव भ्रान्त होने की शंका का उत्तर] "न च सामान्यतः' इति–यहाँ पर यह आशंका हो कि-आपने जो अनुभवबाध बताया है, वह युक्त नहीं है । क्योंकि एकवस्तु में भिन्नत्व और अभिन्नत्व का अनुभव भ्रान्तिरूप है, और भ्रमात्मक अनुभव से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि प्रमात्मक अनुभव ही वस्तु का साधक माना गया है । भेद और अभेद ये दोनों परस्पर विरुद्ध होते हैं, उन का एकवस्तु में समावेश नहीं होता है यही नियम है । तब भेद और अभेद की एकवस्तु में बुद्धि भ्रमात्मक होने के कारण वस्तु को भेदाभेदात्मक सिद्ध नहीं कर सकती है, तब तो अनुभव के बल पर जो आपने भेदाभेदात्मक वस्तु को माना है, वह युक्तिसंगत नहीं है । - इस शंका का समाधान “प्रतियोग्यादिगर्भतया" इस पंक्ति से दिया जाता है। समाधान का तात्पर्य यह है कि भेद और अभेद इन दोनों का सामान्यरूप से विरोध है ही नहीं । क्योंकि गो का भेद अश्व में रहता है और अश्व में अश्व का अभेद भी रहता है । यदि यह कहें कि-"गोभेद और अश्वाभेद का विरोध तो नहीं है किन्तु गोभेद और गो-अभेद इन दोनों का विरोध है, ऐसे ही अश्वभेद और अश्वाभेद का विरोध है चूकि ये दोनों एकवस्तु में नहीं रहते हैं।"-तो यह कहना भी ठीक नहीं हैं । कारण, नील गाय में पीत गाय का भेद है और पीतगाय में नीलगाय का भेद है तो भी इन दोनों में गाय का अभेद रहता है। इसीतरह एक ही वृक्षमें शाखावच्छेदेन कपिसंयोगि का अभेद रहता है और मूलावच्छेदेन कपिसयोगि का भेद रहता है। इस हेतु से भेदा. भेद का सामान्यरूप से विरोध न मान कर विशेषरूप से ही विरोध मानना होगा । अर्थात्-तदरूपेण तत्प्रतियोगिभेद और तदरूपेण तत्प्रतियोगि-अभेद का विरोध मानना
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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