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________________ २० उपा. यशोविजय रचित रह नहीं सकती है यह दोष अनित्यत्वपक्ष में लगता है। यह प्रत्येक पक्ष में होने वाला दोष नित्यानित्य उभय पक्ष में भी लागू होगा ही । अतः वस्तु भेदाभेद उभयात्मक हो नहीं सकती । तब 'वस्तु के किसी एक अंश का प्रधानरूप से ग्राहक नय होता है'-ऐमा कहना सम्भावित नहीं है। दूसरी आपत्ति यह है कि जब भेदाभेद उभयात्मक और नित्यानित्य उपयात्मक वस्तु को मानने में प्रत्येक पक्षोक्त दोष लागू है, तब दोषयुक्त पक्षका स्वीकार करना भ्रभरूप है। इसलिए भेदाभेद उभय एकवस्तु में प्रमीयमाण यानी प्रमाविषय नहीं हो सकता। जब प्रमीयमाण नहीं है, तब भेद-अभेद, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि का एक वस्तु में विरोध सिद्ध होने से भेदादि में विरोध नहीं होता है, ऐसा मानना भी उचित नहीं है। इस शंका का समाधान “जात्यन्तरत्वाभ्युपगमात्” इस ग्रन्थ से उपाध्यायजीने दिया है । गुड मिश्रित शुण्ठाद्रव्य में जात्यन्तर मान लेने पर जसे-कफकारिता तथा पित्तकारिता दोष की निवृत्ति हो जाती है उसीतरह भेदाभेदादि उभयात्मक वस्तु में भी जात्यन्तर मान लेने पर प्रत्येक प्रक्षोक्त दोष का अवसर नहीं आता है ।। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पक्ष में जो दोष दिया गया है, वह एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानकर वैसे ही-एकान्त, नित्यत्व और एकान्त अनित्यत्व मानने में प्रत्येक पक्ष में दोष दिया गया है, किन्तु वह दोष स्याद्वाद सिद्धान्त में तभी लागू हो सकता है, यदि स्याद्वादी वस्तु में एकान्त भेद और एकान्त अभेद इन दोनों को मान्य करता हो, तथा एकान्त नित्यत्व और एकान्त अनित्यत्व इन दोनों को एक वस्तु में मानता हो, किन्तु ऐसा तो नहीं है । स्याद्वादी तो वस्तु में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानता है, वैसे ही कथंचित् नित्यत्व और कथंचित अनित्यत्व वस्तु में मानता है । इसलिए यह उभयात्मक वस्तु जात्यन्तर ही है। अतः कथंचित भेद और कथंचित अभेद माना जाता है, वैसे ही कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व वस्तु में माना जाता है। इसलिए यह उभयात्मक वस्तु जात्यन्तर ही है। प्रत्येक पक्षोक्त दोष का यहाँ सम्भव नहीं है। ___“दृष्टा हि" इत्यादि-जात्यन्तर स्वीकार करने पर प्रत्येक पक्ष में दिए हुए दोष की निवृत्ति कैसे होती है इस का समर्थन करने के लिए गुडशुण्ठीद्रव्य दृष्टान्त रूपसे उपाध्यायजीने बताया है । उस का आशय यह है कि जब गुड और शुण्ठी ये दोनों द्रव्य संयुक्त होते हैं अर्थात्-दोनों का मिश्रण होता है, तब वह विलक्षण चूर्णरूप बन जाता है । उस चूर्ण को न तो गुड कह सकते हैं और न शुण्ठी कह सकते हैं । क्योंकि उस चूर्ण में न तो गुड में रहे हुए उत्कृष्ट माधुर्य का अनुभव होता है और न तो उस चूर्ण के भक्षण से शुण्ठी द्रव्य में रही हई उत्कट कटता का ही अनुभव होता है। तथा केवल गुडभक्षण में जो कफदोषजनकता है, तथा केवल शुण्ठीभक्षण में जो पित्तदोषजनकता है, ये दोनों दोष चूर्णभक्षण में नहीं है, किन्तु इन दोनों दोषों की निवृत्ति ही चूर्णभक्षण से होती है । इसलिए इन दोनों द्रव्यों से बना हुआ जो चूर्ण द्रव्य है, उस में गुडशि में शुण्ठी द्रव्य का अनुवेध है और शुण्ठी द्रव्यांश में गुड द्रव्य का अनुवेध है। "अनुवेध" शब्द का अर्थ अनुप्रवेश या अत्यन्त संयोग होता है । इस हेतु से वह चूर्ण
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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