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________________ न्यरहस्य “नेयं जात्यन्तरनिमित्ता, किन्तु मिथो माधुर्य-कटुकत्वोत्कर्ष-हानिप्रयुवते" ति चेत् ? न,- द्वयोरेकतरबलवत्त्व एवाऽन्याऽपकर्षसम्भवात् , तन्मन्दतायामपि मन्दपित्तादिदोषापत्तेश्च । जात्यन्तरभाव को प्राप्त होता है और उस द्रव्य से केवल गुड प्रयुक्त दोष की निवृत्ति होती है, तथा केवल शुण्ठी प्रयुक्त जो दोष होता है उसकी भी निवृत्ति होती है। इसी केवल भदपक्ष कथित दोष और केवल अभेदपक्ष में कथित दोष की निवत्ति. भेदाभेद के मिश्रण में जात्यन्तर भाव अर्थात् गुडत्व और शुण्ठीत्व जाति से विलक्षण जाति का स्वीकार कर लेने से हो जाती है । इस दृष्टान्त से यह सूचित होता है कि वस्तद्वयका मिश्रण होने पर जात्यन्तर की कल्पना अदृष्टकल्पना नहीं है, किन्तु गुडशुण्ठी द्रव्यों के मिश्रण से जात्यन्तरत्व की प्राप्ति दृष्ट है। इसलिए भेद-अभेद के मिश्रण होने पर जात्यन्तर की कल्पना दृष्टानुसारी कल्पना है। [पित्तादिदोष के निवारण की अन्यथा उपपत्ति की आशंका ] "नेयमिति"-यहाँ यह शंका होती है कि-"गुड और शुण्ठी से बने हुए चूर्ण में एक नयी अतिरिक्त जाति स्वीकार करके उस जात्यन्तर को ही कफकारिता और पित्तकारिता दोषों की निवृत्ति के प्रति कारण मानना आवश्यक नहीं लगता है, किन्तु गुड का संयोग होने पर शुण्ठी द्रव्य में जो उत्कट कटुता है, उस का नाश हो जाता है । इस उत्कट कटुता के नाश को ही पित्तकारिता की निवृत्ति का कारण माना जाय । तथा गुड द्रव्य में शुण्ठी द्रव्य के संयोग होने पर गुड द्रव्यगत जो मधुरता का उत्कर्ष है उस का नाश हो जाता है। वही उत्कर्षनाश कफकारिता की निवृत्ति का कारण बनता है। तब जात्यन्तर मानने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती है । तथा इस जात्यन्तर को दृष्टान्त मानकर भेदाभेद के मिश्रण से वस्तुको कथंचित् उभयात्मक मान कर और उस उभयात्मक वस्तु में जात्यन्तर स्वीकार करके तत्प्रयुक्त प्रत्येक पक्षोंके दोष का निवारण करना भी गौरवग्रस्त होने से अयुक्त प्रतीत होता है।" दोषनिवृत्ति की अन्यथा उपपति का स्पष्ट निराकरण] इस का समाधान उपाध्यायजी देते हैं कि आप की शंका अयुक्त है। क्योंकि जिन वस्तुओं में परस्पर विरोध होता है उनमें से एक के बलवान होने पर दूसरे में उत्कर्ष की हानि होती है, अथवा दूसरे में अपकर्ष होता है । यहाँ गुड और शुण्ठी द्रव्यों में परस्पर ध मान लिया जाय, तब भी दोनों में से किसी एक की बलवत्ता नहीं सिद्ध होती है क्योंकि दोनों द्रव्यों का समान परिमाण से उपादान किया जाता है। इसलिए एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य में विद्यमान माधुर्य के उत्कर्ष की हानि अथवा एक द्रव्य से अपर द्रव्यगत कटुत्व का अपकर्ष होना सम्भवित नहीं है। तब पित्तोत्कर्ष के हानिप्रयुक्त अथवा अपकर्ष प्रयुक्त दोषकारिता की निवृत्ति को मानना उचित नहीं प्रतीत होता है। किन्तु परस्पर मिश्रण से बने हुए चूर्ण द्रव्य को जात्यन्तर मानकर तत्प्रयुक्त ही पृथक गुड पृथक् शुण्ठीद्रव्यगत कफपित्तदोषकारिता की निवृत्ति को मानना उचित है । अर्थात्-दोष (कारिता)
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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