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________________ नयरहस्य एकैकपक्षोक्तदोषापत्तिस्तु जात्यन्तरत्वाभ्युपगमानिरसनीया। दृष्टा हि वैकल्यपरिहारेण तत्प्रयुक्तायाः परस्परानुवेधेन जात्यन्तरमापन्नस्य गुड शुण्ठीद्रव्यस्य कफपित्तदोपकारिताया निवृत्तिः । दृष्टान्त में जैसे नहीं है, वैसे ही विभिन्नअध्यवसायरूप नयात्मक पक्ष में भी नहीं है । इसलिए आभासरूप होने से विप्रतिपत्तित्व का साधक नहीं बन सकता है। भेदाभेद इत्यादि में उभयपक्षीय दोषों की आशंका] एकैक इत्यादि यहाँ यह शंका होती है कि-'यद्यपि एकत्व-द्वित्वादि एकवस्तु में प्रमीयमाण हैं और उन का परस्पर विरोध नहीं है इस दृष्टान्त से वस्तु में भेदाभेद नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्म भी प्रमीयमाण हैं और उन का परस्पर विरोध नहीं है, इसलिए वस्तु अनेकात्मक है, उस के एक अंश का प्रधानरूप से ग्रहिता होने से नय का लक्षण भी घटता है-परन्तु यह सब कहना असंगत है, क्योंकि 'प्रत्येकं यो भवेहोषो द्वयोर्भावे कथं न सः ?' यह शास्त्रकारों का वचन है । एक एक धर्म को स्वीकार करने में जो दोष लगता हो, वह दोष उभय धर्म को स्वीकार करने में क्यों न लगे ? यही इस वचन का अर्थ है । प्रकृत में वस्तु को भेदाभेदात्मक यदि माने तो 'गुण-गुणी का अभेद है' इस पक्ष में भेदपक्षवादी ने दोष दिया है कि अंधव्यक्ति को घट का (परोक्ष) ज्ञान किसी तरह यदि हो जाय, तो घटीयरूप का भी ज्ञान हो जाना चाहिए । इसलिए अभेदपक्ष युक्त नहीं है। ऐसे ही अवयवाऽवयवी का भेदाऽभेद स्याद्वाद सिद्धान्त में स्वीकृत है, यदि अवयवावयवी का (केवल) भेद माना जाय तो, अभेदवादी ने दोष दिया है कि अवयवगत गुरुत्व से अवयवीगत गुरुत्व का उत्कर्ष हो जायगा, इसलिए भेद पक्ष भी युक्त नहीं है, यह एक एक पक्ष में कहा हुआ दोष भेदाऽभेदात्मक वस्तु को माननेवाले स्याद्वाद सिद्धान्त में लागू होते ही हैं । ऐसे ही वस्तुमात्र को नित्याऽनित्यात्मक स्थाद्वादियों ने माना है । वस्तु को यदि केवल नित्य माना जाय तो वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व ही नहीं हो सकता है । यदि वह नित्यवस्तु क्रम से अर्थक्रिया करेगी तो कालान्तरभावि सभी क्रियाओं को प्रथमकाल में ही कर डालेगी, क्योंकि सभी कियाओं को करने की शक्ति को धारण करनेवाली वस्तु विलम्ब क्यों करेगी ? यदि विलम्ब करेगी, तो वस्तु में सामर्थ्य का अभाव सिद्ध हो जायगा । यदि वस्तु युगपद् ही सकल क्रिया को करेगी यह पक्ष रखा जाय, तो यह भी प्रतीतिविरुद्ध है। कारण, कोई भी वस्तु सकल काल में होनेवाली सभी क्रियाओं को एक साथ करती है ऐसा देखने में नहीं आता है । यदि मान लिया जाय कि वह सभी क्रियाओं को एक साथ करती है, तो द्वितीय क्षण में अर्थक्रियाकारित्व वस्तु में नहीं रहेगा, इसलिए वह असत् बन जायगी क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व ही सत् का लक्षण है। नित्यत्व पक्ष में यह दोष लगता है । वस्तु को केवल अनित्य मानने में यह दोष है कि अनित्य वस्तु भी क्रम से अर्थक्रिया नहीं कर सकती है क्योंकि उस में क्रम ही नहीं है । कालिकपौर्वापर्य और दैशिकपौर्वापर्य ही क्रम पदार्थ है, वह अनित्यत्ववादि के पक्ष में सम्भव नहीं है क्योंकि वह वस्तु को क्षणिक मानता है। क्षणिक वस्तु अनेक देश और अनेक काल तक
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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