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________________ १४ उपा. यशोविजय रचित पत्तित्व यानी संदिग्धता का प्रसंग आता है, जो इष्ट नहीं है । क्योंकि जिस पदार्थ की विरुद्ध प्रतीतियाँ होती हैं, उस पदार्थ का निश्चय नहीं हो सकता है और अनिश्चयात्मक ज्ञान को तत्त्वज्ञान नहीं कह सकते हैं । तत्त्वज्ञान तो निश्चयात्मक ही होता है, यह प्रसिद्ध है । [विप्रतिपत्तित्व की शंका का निराकरण - १] इस शंका का एक समाधान उपाध्यायजी 'अत एव' पद से देते हैं। 'अत एव' का अर्थ यह है कि जिस कारण से विभिन्नाध्यवसायरूप नयों में मिथ्यात्व का प्रसंग नहीं दिया जा सकता है, उसी कारण से विप्रतिपत्तित्व का प्रसंग भी नहीं दिया जा सकता । नय विभिन्नाध्यवसायरूप अवश्य है, तथापि सभी नय अपने अपने विषयों का प्रधानरूप से प्रतिपादन करते हैं । अन्य धर्म भी घटपटादि वस्तु में प्रमाणसिद्ध हैं। उनका नयों से निषेध नहीं होता है, किन्तु गौणतया प्रतिपादन ही होता है । इस ढंग से यदि अन्य धर्मो का प्रतिपादन होता हो तो मिथ्यात्व या विप्रतिपत्तित्व नयों में नहीं आता है | ये नय विप्रतिपत्तिरूप तब होते, यदि विरोध होता । जैसे - आत्मा में ज्ञानरूप धर्म विद्यमान है । यहाँ यदि अज्ञानता का प्रतिपादन हो कि आत्मा ज्ञानरूप धर्म से शून्य ( रहित ) है, तो ज्ञान और अज्ञान का विरोध होने से आत्मा ज्ञानी है और आत्मा अज्ञानी है, इन दोनों वाक्यों से होनेवाले उभय ज्ञान विप्रतिपत्तिरूप होते हैं, क्योंकि आत्मा में ज्ञानधर्म तो सत् है और दूसरे वाक्य से अज्ञानरूप धर्म का उपादान किया गया है, जो आत्मा में असत् है । यह स्थिति नयों में नहीं है । तब यदि गौणतया अन्य धर्मो का प्रतिपादन करे भी तो विरोध नहीं होगा, क्योंकि प्रमाण से वे धर्म भी उस वस्तु में सिद्ध हैं। यदि इन नयों में से कोई नय घटादिवस्तु में प्रमाणसिद्ध धर्म का प्रतिपादन करता और दूसरा नय प्रमाण से असिद्ध धर्म का प्रतिपादन उसी वस्तु में करता तो अध्यवसायरूप इन नयों में विरोध हो सकता था, ऐसा तो है नहीं । निष्कर्ष - 'नय विप्रतिपत्तिरूप हैं' इस आशंका को अवसर नहीं है । [विप्रतिपत्तित्व की शंका का निराकरण - २ ] दूसरा समाधान यह देते हैं कि अध्यवसायरूप नैगमादिनय विरुद्ध विभिन्न धर्म के ग्राही होने पर भी विप्रतिपत्तिरूप नहीं हैं । इस समाधान के लिए तीन दृष्टान्त बताये हैं । उस में पहला दृष्टान्त यह है कि अनेकावयवात्मक इस समग्र जगत् में सव व्याप्त है । इसलिए 'सारा जगत् एक है' - इस तरह का एकत्वाध्यवसाय समस्त जगत में होता है । वैसे ही सतरूप से एकात्मक यह जगत् जीवाजीवात्मक होने से उभयात्मक है - इस तरह का द्वित्वाध्यवसाय भी जगत् होता है । ऐसे ही एक होते हुए भी यह जगत् त्रितयात्मक है, ऐसा त्रित्वाध्यवसाय भी होता है, क्योंकि यह समुचा जगत् द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक है । गुण और पर्यायों में जिस का अन्वय हो वह द्रव्य कहा जाता है । गुण तो रूप रसादि प्रसिद्ध ही है, कपालादि मिट्टी का पर्याय है । इसलिए यह जगत् द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक है, त्रितयात्मक होने से उस एक में भी त्रित्वाध्यवसाय होता है । इसी तरह 'यह जगत् चतुष्टयात्मक है' ऐसा चतुष्ट्वका अध्यवसाय एक ही जगत् में होता है । क्योंकि यह जगत् * चक्षुदर्शनादि चारों दर्शनों का विषय हैं । * चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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