SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यरहस्य अत एवं नैकस्मिन्नर्थे नानाध्यवसायरूपाणामेतेषां विप्रतिपत्तित्वमप्याशङ्कनीयम् , सत्त्व-जीवाजीवात्मकत्व-द्रव्यगुणपर्यायात्मकत्व-चतुर्दर्शनविषयत्व-पञ्चास्तिकायावरुद्धत्व-पइद्रव्यक्रोडीकृतत्वधर्मरेकत्व-द्वित्व-त्रित्व-चतुष्ट्व-पञ्चत्व-पइत्वाध्यवसायानामिव १, पर्यायविशुद्धिवशात् पृथगर्थग्राहिणां मतिज्ञानादीनामिव २, एकत्रार्थे प्रतिनियत विषयविभागशालिनां प्रत्यक्षादीनामिव ३ वा नैगमाद्यध्यवसायानामविरुद्धनानाधर्मग्राहित्वेऽप्यविप्रतिपत्तिरूपत्वादिति सम्प्रदायः । यहाँ यह आशंका होती है कि ये नय यदि स्वतन्त्र ही हैं तो, मिथ्या क्यों न माने जाय, क्योंकि स्वतन्त्रता ही मिथ्यात्व का प्रयोजक है, वह स्वतन्त्रता तो नयों में भी रहती है। इस का समाधान उपाध्यायजी देते हैं, स्वविषयप्राधान्यरूप स्वतन्त्रता मिथ्यात्व प्रयोजक नहीं मानी जाती है । जैसे-गौणत्व, मुख्यत्व आपेक्षिक वस्तु धर्म हैं, एक ही वस्तु में किसी की अपेक्षा से गौणत्व और किसी की अपेक्षा से मुख्यत्व रहता है और दोनों का विरोध भी नहीं होता है क्योंकि दोनों धर्म अपेक्षाकृत होते हैं । अत एव वे परस्पर बाध्यबाधक नहीं बनते हैं, इसलिए मिथ्या भी नहीं बनते हैं। अथवा एक ही वस्तु में हृस्वत्व और दीर्घत्व ये दोनों धर्भ रहते हैं, वे अपेक्षा से ही रहते हैं, इसलिए एकदूसरे का बाधक नहीं होते हैं और एकदूसरे से बाथ्य भी नहीं होते हैं, अत एव मिथ्या भी नहीं बनते हैं । इसी रीति से स्त्रविषयप्राधान्यरूप स्वतन्त्रता भी आपेक्षिक वस्तु धर्म है, क्योंकि प्राधान्य किसी की अपेक्षा से किसी में होता है। इन नैगमादि अध्यवसायों में स्वाभिप्रेत धर्म की प्रधानता रहती है। वह प्रधानता स्वाऽभिप्रत धर्म की अपेक्षा से रहती है, अनभिप्रेत धर्म गौणरूप से इन नयों में भी भासते ही हैं । दुर्नयों की तरह अनभिप्रेत धर्मा का सर्वथा प्रतिषेध यहाँ नहीं होता है । इस कारण से स्वविषयप्राधान्यरूप स्वतन्त्रता मिथ्यात्व प्रयोजक नहीं बनती है। अत एव नयों में मिथ्यात्वप्रसंग का अवसर नहीं है । उपाध्यायजी कहते हैं कि इस वस्तु का विवेचन अन्य ग्रन्थों में मैंने किया है, इस कारण से यहाँ विस्तृत विवेचन नहीं करता हूँ। निय में विप्रतिपत्तिभाव की आपत्ति की शंका] अत एव इत्यादि-यहाँ शंका होती है कि-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं । इन पाँचों नयों की योजना घट-पट वगैरह प्रत्येक वस्तु में की जाती है क्योंकि नयों की योजना के बिना जीवाजीवादि तत्त्वों का विस्तृत अधिगम नहीं हो सकता है । प्रमाणनयरधिगमः यह तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (१-६), इस बात को पुष्ट करता है । प्रमाण और नयों के द्वारा तत्त्वों का स्पष्ट परिच्छेद होता है, इस बात को सूत्रकार ने बताया है। इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रमाणों की और नयों की योजना आवश्यक है। तभी पदार्थों का स्फुट ज्ञान हो सकता है । ये पाँचों नय भिन्न भिन्न अध्यवसायरूप हैं। एक वस्तु में अनेक विविध अध्यवसायों का होना जब निश्चित हुआ, तब वे अध्यवसाय अवश्य विरुद्धप्रतीतिरूप होंगे, इसलिए इन नयों में विप्रति
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy