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________________ नयरहस्य तथा यह जगत् पंचात्मक हैं-इस तरह का पञ्चत्वाध्यवसाय जगत् में होता है। क्योंकि यह जगत् धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल ये पांच अस्तिकायों का समूह है, अर्थात् एकादिरूप यह जगत् पंच अस्तिकायात्मक है । तथा यह जगत् जो पंच अस्तिकायात्मक है 'वह षडविध भी हैं' ऐसा षटुत्वाध्यवसाय भी जगत् में होता है। कारण, धर्मादि पाँच और एक काल, इस तरह से षड़ द्रव्यात्मक यह जगत् है । जैसे-ये छह प्रकार के अध्यवसाय विप्रतिपत्तिरूप नहीं होते हैं, कारण, एकत्व-द्वित्वादि धर्म जगत् में परस्पर विरुद्ध नहीं है, किन्तु आपेक्षिक वस्तु-धर्म हैं, और एकत्वाध्यवसाय से प्रधानतया एकत्व का प्रतिपादन तो होता है, परन्तु आपेक्षिकद्वित्वादि धर्मो का निषेध नहीं होता है, किन्तु अपेक्षा से विद्यमान द्वित्वादि धर्मो का भी गौणरूप से प्रतिपादन ही होता है-इसी तरह द्वित्व, त्रित्वादि अध्यवसायों से भी द्वित्व, त्रित्वादि धर्मों का मुख्यतया प्रतिपादन होने पर भी उन से इतर धर्मों का निषेध नहीं होता है, किन्तु गौणतया प्रतिपादन ही होता है। इस कारण से एकत्व द्वित्वादि अध्यवसाय विप्रतिपत्तिरूप नहीं होते हैं। उसी तरह नैगमादिनय विविधाध्यवसायरूप होते हुए भी विप्रतिपत्तिरूप नहीं हैं, ऐसा तात्पर्य प्रथम दृष्टान्त का निकलता है। . [विप्रतिपत्तित्व की शंका का निराकरण-३] उपाध्यायजी मतिज्ञानादीनामिव दूसरा दृष्टान्त देकर नयों में विप्रतिपत्तित्व प्रसंग का वारण करते हैं । मति ज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच प्रकार ज्ञान के माने गये हैं । ये पाँचों ज्ञान धर्म-अधर्म-आकाश-पुदगल और जीव. इनमें से किसी एक अर्थ को अन्य अन्य रूप से बताते हैं। कारण मत्यादिरूप ज्ञानपर्यायों में जब आवरण के हट जाने से स्वच्छतारूप जो विशुद्धि की प्राप्ति होती है, वह विशुद्धि मत्यादि ज्ञानों में भिन्न भिन्न रूप की होती है, तब वे मत्यादिज्ञान धर्मादि अस्तिकायों को भिन्न भिन्न रूप से बताते हैं । जैसे-मतिज्ञानी पुरुष मनुष्यपर्याय को चक्षुरादि इन्द्रिय द्वारा साक्षात् बताता है । उसी मनुष्य पर्याय को श्रुतज्ञानी आगम द्वारा बताता है । उसा को अवधिज्ञानी अतीन्द्रियज्ञान से बताता है । उसी को मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्य के अवलंबन से बताता है । केवलज्ञानी तो अत्यन्त विशुद्ध होने से केवलज्ञान द्वारा मनुष्य के पूरे स्वरूप की स्पष्ट उपलब्धि कराता है। तो भा मत्यादिज्ञान विप्रतिपत्तिरूप नहीं होता है, कारण अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार तर-तमभाव से मनुष्यादि के पर्यायों का बोधन करते हैं । वैसे हा नैगमादि नय अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार एक ही वस्तु को विभिन्नरूप से बोध कराते हैं, तो भी वे विप्रतिपत्तिरूप नहीं होते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि मनुष्यादि पर्यायों की मत्यादिज्ञानों से विशुद्धिवशात् पृथक् पृथक उपलब्धि होती है, क्योंकि मतिज्ञानी पुरुष मनुष्यादि जीवों के अमुक पर्यायों का ही ज्ञान करता है । उस से अधिक पर्यायों का ज्ञान श्रुतज्ञानी को होता है । श्रुतज्ञानी की अपेक्षा से भी अधिक पर्यायों का ज्ञान अवधिज्ञानी को होता है । अवधिज्ञानी की अपेक्षा से भी अधिक मनुष्यादि पर्यायों का ज्ञान मनःपर्यायज्ञानी को होता है । केवलज्ञानी को तो सकल पर्यायों का ज्ञान होता है, एक भी पर्याय मनुष्यादि का वैसा नहीं रहता है कि जिस का ज्ञान केवलज्ञानी को न हो। इस रीति
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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