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________________ उपा. यशोविजय रचित ' तथाप्येते तन्त्रान्तरीयाः स्वतन्त्रा वा चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन विप्रधाविता: ? उभयथापि मिथ्यात्वमिति चेत् ? न प्रमाणापेक्षत्वेनैतेषामुभयवैलक्षण्यात्, स्वविषयप्राधान्यरूपस्वतन्त्रतायाश्च मिथ्यात्वाऽप्रयोजकत्वात् । गौणत्वमुख्यत्वयोह्रस्वत्व-दीर्घत्वयोरिवापेक्षिकवस्तुधर्मत्वात् । प्रपञ्चितं चेदमन्यत्रेति नेह प्रतन्यते । [ दो विकल्प से नय में मिथ्यात्व की शंका ] तथाप्ये० इत्यादि - इस ढंग से नय पदार्थ का निरूपण करने पर यह प्रश्न ऊठता है कि नैगम आदि नय तन्त्रान्तरीय हैं अर्थात् वैशेषिकादि के बाद रूप ये नय हैं, जो स्वशास्त्र प्रतिपादित अर्थों को निश्चित करने में संलग्न हैं ? अथवा ये नैगमादि नय स्वतन्त्र हैं अर्थात् - जिनप्रवचन का अपनी बुद्धि के अनुसार विभाग करने में संलग्न हैं ? स्वतन्त्र शब्द के भावार्थ का विवरण करने के लिए, चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन विप्रधाविताः इन तीनों पद का प्रयोग किया गया है । अपने पक्ष में भी द्विरुक्ति अनुति आदि का चिन्तक जो होवे उस को चोदक कहते हैं । उस का पक्ष अर्थात् विषय, उस को ग्रहण करने का, अर्थात् विचार करने का स्वभाव जिन का होवे वे चोदकपक्षग्राही कहलाते हैं । वे लोग मतिभेद से अर्थात् अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार विरुद्ध पथ में विप्रधावन अर्थात् प्रगति करते हैं इसलिए वे यथार्थ निरूपण नहीं कर सकते, किन्तु, अयथार्थ निरूपण ही उन से होता है । इस का समुदित अर्थ यह है कि, ये नेगमादि नय जिनप्रवचन को प्रधान मानते हुए भी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार यह बतलाते हैं कि जिनप्रवचन में अमुक अंश का कथन न हो सका तथा अमुक अंश का कथन होते हुए भी युक्त नहीं है, ऐसे वादि को स्वपक्ष में "स्वतन्त्र" पद से परि गृहीत किया है । पूर्व पक्षी कहता है कि दोनों पक्षों में कोई भी पक्ष युक्त नहीं है क्योंकि दोनों पक्षों में मिथ्यात्व का प्रसंग आता है । वैशेषिक आदि तन्त्रवाले जिनप्रवचन से विपरीत मान्यता रखते हैं, एकान्तवादी है, इसलिए मिथ्यात्व में आते ही हैं । अतः " नय" यदि तन्त्रान्तरीय हैं, तो मिथ्यात्व इन में है ही । यदि स्वतन्त्र हैं, तो भी मिथ्यात्व का प्रसंग होता है, क्योंकि अपनी बुद्धि से अनुक्तत्व, दुरुक्तत्व आदि की चिन्ता में लगे रहने के कारण अयथार्थ निरूपण ही इन से होता है । इसलिए इन " नैगमादि नयों" को अन्यतन्त्रीय मानने में दोष होने से युक्त नहीं है । स्वतन्त्रीय मानना भी युक्त नहीं क्योंकि उस में भी दोष प्रतीत होता है । यह शंकाकार का आशय है । [नय में मिथ्यात्व शंका का निराकरण ] उपाध्यायजी समाधान इस ढंग से देते हैं कि ये नैगमादिनय न तो अन्यतन्त्रीय हैं और न स्वतन्त्रीय हैं, किन्तु दोनों से विलक्षण हैं । इस का कारण यह है कि नय में प्रमाण की अपेक्षा है और उन दोनों पक्षों में प्रमाण की अपेक्षा नहीं, उपेक्षा है । अर्थात्विविध धर्मात्मक वस्तु का विविधाकार ज्ञान से निरूपण इन नर्यो के द्वारा प्रमाण की अपेक्षा से होता है, इसलिए स्वतन्त्र अर्थात् जिनप्रबचनसिद्ध वस्तु का हा निरूपण इन नयों से होता है । इसलिए अध्यवसाय विशेषरूप ही ये नय हैं । अतः मिथ्यात्व दोष का प्रसंग इन अध्यवसायविशेषरूप नयों में नहीं आता है । १२
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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