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________________ नयरहस्य यद्येवं नयानामध्यवसायरूपता, कथं तर्हि "उवएसो सोणओ णाम ति" ? (आव. नि. १०५४) सत्यं, नयजन्योपदेशे नयपदोपचारात् । सभा को समझने में क्लेश का अनुभव हो सकता है-वह न हो इस आशय से उपाध्यायजी ने लक्षणों को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया है। निय अध्यवसायरूप है या उपदेशात्मक ?] यद्यवमित्यादि-यहाँ ऐसी आशंका की जाय कि आप ने प्रकृतवस्त्वंशग्राही और तदितर अंश का निषेधक न हो ऐसे अध्यवसायविशेष को नय माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि सभी नय अध्यवसायरूप अर्थात् ज्ञानरूप हैं । आवश्यक नियुक्तिकार ने उपदेश को नय कहा है, उपदेश वाक्यरूप है, उस से आप के लक्षण में विरोध आता है क्योंकि आवश्यकनियुक्तिकार वाक्यात्मक उपदेश को नय मानते हैं और आप अध्यवसाय को नय मानते हैं । अतः आप का मन्तव्य आवश्यक नियुक्तिकार के मन्तव्य से बाधित है, इसलिए अमान्य है। उत्तर-यहाँ सत्य पद अर्ध स्वीकार अर्थ में प्रयुक्त है। उस का तात्पर्य यह है कि आपने जो विरोध बताया उस को कुछ अंश में मैं भी स्वीकार करता हूँ। वास्तविक रीति से विरोध नहीं है, क्योंकि आवश्यक नियुक्ति में जहाँ उपदेश को नय बताया गया है, वहाँ नय पद का मुख्य प्रयोग नहीं है, किन्तु गौण प्रयोग है। नय पद का मुख्य प्रयोग तो अध्यवसायविशेष में ही होता है। नय जन्य उपदेश में नय पद का प्रयोग उपचार से किया गया है । 'अन्य वस्तु में प्रसिद्ध धर्म का अन्य वस्तु में जो आरोप' उस को उपचार कहते हैं । अभिप्रायविशेष में प्रसिद्ध नयत्व धर्म का नयजन्य उपदेश में आरोप कर के उपदेश का नय पद से व्यवहार आवश्यक नियुक्तिकार ने किया है, इसलिए विरोध नहीं आता है । ऐसा आरोप करने में भी जिस धर्मी के धर्म का जिस अन्य धर्मी में आरोप किया जाता है, उन दोनों धर्मियों का कुछ न कुछ सम्बन्ध रहता है, तभी आरोप होता है। यहाँ भी अभिप्रायविशेषरूप नय का धर्म जो नयत्व उस का आरोप उपदेश में किया गया है, इसलिए नयरूप धर्मी और उपदेशरूप धर्मी इन दोनों धर्मियों में कुछ सम्बन्ध होना आवश्यक है। वह सम्बन्ध जन्यजनकभाव सम्बन्ध है । यहाँ नयरूप धर्मी जनक है और उपदेशरूप धर्मी जन्य है । इस कारण से उपदेशरूप धर्मी में नय के धर्म नयत्व का आरोप है क्योंकि दोनों धर्मी जन्यजनकभाव सम्बन्ध से सम्बन्धित है। इस तरह के उपचार का शास्त्रकारों ने असदभूतव्यवहार शब्द से भी परिचय कराया है । जो जिस रूप से सत् नहीं है, किन्तु असत् है, तथापि उस रूप से उस का व्यवहार करना ही असदभृतव्यवहार कहा जाता है, जैसे-रजत का रूप जो रजतत्व है उस रूप से शुक्ति असत् है, उस शुक्ति का रजतत्व धर्म से 'यह रजत है' ऐसा व्यवहार असदभूतव्यवहार है। प्रकृत में भी नयजन्य उपदेश नयत्व रूप से असत् है उस में नयत्वरूप से व्यवहार करना ही असद्भुत व्यवहार है। यही उपचार कहा जाता है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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