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________________ १७० उपा. यशोविजयरचिते अत्र च सकलर्मिविषयत्वात्त्रयो भंगा अविकलादेशाः, चत्वारश्च देशावच्छिन्नधर्मिविषयत्वाद्विकलादेशा इति । यद्यपीदृशसप्तभंगपरिकरितं सम्पूर्ण वस्तु स्याद्वादिन कुम्भः अकुम्भश्च” इस चतुर्थभंग की प्रवृत्ति होती है। इन में से तीन भंग एकरूप होते हैं, अर्थात् कुम्भत्व, अकुम्भत्व और अवक्तव्यत्वरूप एक-एक धर्मप्रकारक बोध को उत्पन्न करते हैं । चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठ ये तीन भंग उभयरूप होते हैं। अर्थात् धर्मद्वयप्रकारक बोध को उत्पन्न करते हैं । उन में से प्रथम उभयरूप भंग चतुर्थभंगात्मक है, जिस का स्वरूप प्रदर्शित कर दिया गया है । द्वितीय उभयरूपमंग पञ्चमसंगरूप है । वस्तु के एकदेश में स्वपर्याय द्वारा सत्त्व की विवक्षा हो और दूसरे देश में स्वपर्याय और परपर्यायों के द्वारा सत्त्व और असत्त्व इन दोनों की युगपद विवक्षा हो तो, "अयं स्यात्कुम्भः, स्यादवक्तव्यश्च' यह पञ्चमभंग प्रवृत्त होता है । इस में वह कुम्भ भी होता है और अवक्तव्य भी होता है। क्योंकि इस भंग से कुम्भत्व और अवक्तव्यत्व एतद् उभयप्रकारक बोध होता है, इसलिए यह भंग उभयरूप कहा जाता है। तथा वस्तु के एकदेश में परपर्यायों के द्वारा असत्त्व की विवक्षा हो और परपर्यायों के द्वारा युगपद सांकेतिक किसा एक शब्द से सत्त्व और असत्त्व विवक्षा हो तो, “अयं स्याद अकुम्भः, स्यात् अवक्तव्यश्च” यह षष्ठभंग प्रवृत्त होता है, इस भंग से भी अकुम्भत्व और अवक्तव्यत्व एतद उभयप्रकारक बोध होता है, इसलिए उभयरूप माना जाता है । इसतरह पूर्वोक्त द्वितीय गाथा के उत्तरार्द्ध से छः भंगों का साक्षात् कथन किया गया है, जिन में प्रथम तीन एक एक धर्मप्रकारक बोध के जनक होते हैं और अवशिष्ट तीन दो दो धर्म प्रकारक बोध करते हैं । सप्तमभंग का संग्रह “आदि" पद से किया है । वस्तु के एक अवयव में स्वपर्यायों के द्वारा सत्त्व की विवक्षा, दूसरे अवयव में परपर्यायों के द्वारा असत्त्व की विवक्षा हो और तीसरे अवयव में स्वपर्याय और परपर्यायों के द्वारा युगपत् सांकेतिक किसी एक शब्द से सत्त्व-असत्त्व की विवक्षा हो तो अवयवों के द्वारा अवयवी सत्, असत् और अवक्तव्य होता है। इस स्थिति में “अयं स्यात् कुम्भः, स्याद् अकुम्भः, अवक्तव्यश्च” यह सप्तमभंग प्रवृत्त होता है । इस भंग में घटत्व अघटत्व और अवक्तव्यत्व एतत् धर्मत्रयप्रकारक बोध होता है क्योंकि घट एकदेश में घटत्व से युक्त प्रतीत होता है, दूसरे देश में अघटत्व से युक्त प्रतीत होता है और तीसरे देश में अवक्तव्यत्व से युक्त प्रतीत होता है, इस तरह घट के सात भेद सिद्ध होते हैं, क्योंकि 'कुम्भत्व, २अकुम्भत्व, अवक्तव्यत्व, 'कुम्भत्वाऽकुम्भत्व, 'कुम्भत्व-अवक्तव्यत्व, अकुम्भत्व-अवक्तव्यत्व कुम्भत्व-अकुम्भत्व-अवक्तव्यत्व" ये सात धर्म घट में सप्तभङ्गी प्रयोग के द्वारा सिद्ध होते हैं। [ सकलादेश, विकलादेश, स्याद्वाद और नय ] [अत्र च सकल]=इन सातों भङ्गों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय भङ्ग अविकलादेश जाते हैं क्योंकि एक-एक धर्म स्वरूप से इन अंगों से अखण्डधर्म घटादि का ही विधान किया जाता है, इसलिए ये तानों भंग सकलधर्मिविषयक होते हैं, अतः इन का सकलादेश या अविकलादेश शब्द से व्यवहार किया जाता है। चतुर्थ आदि चार भंगों में
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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