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________________ १६९ नयरहस्ये सप्तभङ्गी तथा च बभाषे भाष्यकार:- " अहवा पच्चुप्पन्नो, रिउसुत्तस्साविसेसिओ चेव । कुम्भो विसेसियतरो, सब्भावाई हिं सदस्स ॥२२३१॥ सम्भावाऽसब्भावोभयप्पिओ सपरपज्जओभयो । कुभाऽकुभाऽवत्तबोभयरूवाइभेओ सो ॥२२३२॥ त्ति'। अत्र कुम्भाकुम्भेत्यादि गाथार्धन पइभंगाः साक्षादुपात्ताः सप्तमस्त्वादिशब्दात् । तथाहि कुम्भोऽकुम्भोऽवक्तव्यः, कुम्भश्चाकुम्भश्च, कुम्भश्वावक्तव्यश्चाकुम्भश्वावक्तव्यश्चेति त्रिविध उभयरूप आदिशब्दसंगृहीतश्च "कुम्भोऽकुम्भोऽवक्तव्यश्चेति सप्तभेदो घट इति ॥ यहाँ प्रथमभंग से लेकर षष्ठमंग पर्यन्त किसी भंग को अवकाश मिलने का प्रसंग नहीं रहता है क्योंकि परस्परानुविद्ध सत्त्व, असत्त्व और अवक्तव्यत्वप्रकारकबोध पूर्व के किसी भंग से नहीं होता है, इसलिए सप्तमभंग की प्रवृत्ति होती है । इति सप्तमो भंगः ॥७॥ __(तथा च बभाषे) साम्प्रतनय सप्तभंगों का स्वीकार करता है । ऋजुसूत्र के मत में मंगों का सम्भव नहीं है; यही ऋजुसूत्र की अपेक्षा से साम्प्रत में विशेष है, ऐसा ग्रन्थकार ने प्रतिपादन किया है। स्वप्रतिपादित इस अर्थ में समर्थन के लिए विशेषावश्यक भाष्यकार की दो गाथाओं को प्रमाणरूप से उधृत किया है-उन का तात्पर्य इस प्रकार है [ भाष्यकार के शब्दों में सप्तम गी का निर्देश ] ऋजुसूत्र नय नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों वर्तमान घटों को मानता है । परन्तु “शब्दनय' पृथुबुध्नोदरादि आकार से युक्त जलाहरणादि क्रिया के योग्य वर्तमान भावघट मात्र को मानता है, इसलिए ऋजुसूत्र की अपेक्षा से विशेषिततर अर्थ का ग्राही शब्दनय है, यही शब्दनय में विशेषता है, परन्तु दूसरे प्रकार के भी शब्दनय में ऋजुसूत्र की अपेक्षा विशेष हो सकता है, इस अभिप्राय से भाव्य में 'अथवा' पद दिया है। वह दूसरा प्रकार यह है कि ऋजुमूत्र प्रत्युत्पन्न सत्त्वाऽसत्वादि से अविशेषित कुम्भ को ही सामान्यतः कुम्भ मानता है, परन्तु "शब्दनय" तो सद्भाव आदि से विशेषिततर कुम्भ को ही कुम्भ मानता है, इसलिए कुम्भ, अकुम्भ, अवक्तव्य आदि भेदों से युक्त कुम्भ को मानने से सप्तभंगों का प्रवृत्ति "शब्दनय" में होती है। स्वपर्या सदभाव विशेषित घट होता है, अतः "स्यादस्ति घटः" यह प्रथमभंग होता है। त्वक्त्राणादि परपर्यायों के द्वारा असदभाव से विशेषित कुम्भ कुम्भरूप नहीं होता है, इस विवक्षा से "स्यात् नास्ति घटः” इस द्वितीयभंग की प्रवृत्ति होती है। तथा सभी स्वपर्याय कम्बुग्रीवादि के द्वारा सत्त्व से विशेषित और परपर्यायों के द्वारा असत्त्व से विशेषित कुम्भ की जब किसी एक सांकेतिक शब्द से विवक्षा होती है, तब कुम्भ अवक्तव्य होता है । उस स्थिति में "स्यात् कुम्भः अवक्तव्यः" इस तृतीयभंग का प्रवृत्ति होती है । जब क्रमिक सत्त्व विशषित और असत्त्व विशेषित कुम्भ की विवक्षा होती है, तब “अयं स्यात् * अथवा प्रत्युत्पन्न ऋजुसूत्रस्याविशेषित एव । कुम्भोऽविशेषिततर: सद्भावादिभिः शब्दस्य ।।२२३१।। सदभावाऽसदभावोभयार्पितः स्वारपर्यायोभयतः । कुम्भाऽकुम्भाऽवक्तव्योभयरूपादिभेदः सः ॥२२३२॥ २२
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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