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________________ १७१ नयरहस्ये सकला देशादि एव सङ्गिरन्ते, तथापि ऋजुसूत्रकृताभ्युपगमापेक्षया एतदन्यतरभंगा धिक्याभ्युपगमाच्छन्दनयस्य विशेषिततरत्वमदुष्टमिति सम्प्रदायः ॥ देशभेद से भिन्न भिन्न धर्मद्वय या धर्मत्रयरूप से धर्मि का विधान होता है, इसलिए ये चारों भंग देशावच्छिन्नधर्मिविषयक होते हैं क्योंकि इन भंगों में अवयवों के द्वारा अवयवी धर्मात्मकत्व या धर्मत्रयात्मकत्व निश्चित किया जाता है, इसीलिए ये भंग विकलादेश या देशादेश शब्द से व्यवहृत होते हैं । “प्रमाणनयतत्वालोकालंकार” ग्रन्थ के कर्त्ता आचार्य के मत से यह सप्तभंगी प्रत्येक भंग में सकलादेशरूप और विकलादेशरूप मानी गई है। उन का अभिप्राय यह है कि वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक है और वस्तु में अनन्तधर्म प्रमाण से सिद्ध हैं उन धर्मों से उक्त धर्मि भी प्रमाण से सिद्ध हैं । उन अशेष धर्मात्मक वस्तु का उन अनन्त धर्मों से कालादि अष्टक की अपेक्षा से अभेद मानकर अर्थात् धर्म-धर्मी का अभेद मान कर एक साथ बोध जिस वाक्य से होता है वह वाक्य सकलादेश कहा जाता है । अथवा भिन्न स्वरूप उन धर्म और धर्मी को कालादि सापेक्ष उपचार - लक्षणा से अभेद मानकर एक काल में जिस वाक्य से बोध होता है, वह वाक्य सकलादेश कहा जाता है, ऐसा बोध प्रमाणसाध्य होता है, इसलिए प्रमाणवाक्य को सकलादेश कहते हैं । " द्रव्यार्थिकनय” से सत्तादि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की शक्ति का ज्ञान होता है । कालादि अष्टक के द्वारा जो भेद का प्रतिसन्धान होता है उस से उपस्थित बाध का प्रतिरोध होना ही अभेद की प्रधानता कही जाती है । पर्यायार्थिकनय से 'सत्' आदि पद की शक्ति का ज्ञान अन्यापोह में अर्थात् तत्तत् व्यक्ति में होता है, उस से अभेद का बोध नहीं हो सकता है । अनेक धर्मात्मक वस्तु का अभेद करने में ही प्रमाणवाक्य का तात्पर्य होता है । इस तात्पर्य की उपपत्ति, जब तक सत् आदि पद की लक्षणा अभेद में न होगी, तब तक सिद्ध नहीं होती है, इसलिए अभेद में लक्षणा करना आवश्यक होता है, उसी लक्षण को अभेदोपचार भी कहते हैं । इस अभेदोपचार से भी वस्तु के समस्त धर्मों का ज्ञान एक काल में होता है । इसतरह दो प्रकार अभेद या अभेदोपचार से प्रत्येक भंग सकलादेश कहा जाता है । जिस समय वस्तु के अनन्त धर्मों में प्रधानरूप से भेद अथवा भेदोपचार रहता है उस समय तक शब्द से वस्तु में अनन्त धर्मो का एक काल में प्रतिपादन नहीं हो सकता है, इस हेतु से उन अनन्त धर्मे का क्रम से हा प्रतिपादन होता है। अतः क्रम से वस्तु के अनेक धर्मो का प्रतिपादन जिस वाक्य से होता है, वह वाक्य "विकलादेश" कहा जाता है । " विकलादेश" नय वाक्य को कहते हैं । जब अस्तित्वादि वस्तुधर्मो में कालादि के भेद से भेदविवक्षा रहती है, उस समय किसी भी शब्द की अनेक अर्थ के बोध कराने में शक्ति नहीं रहती है इसलिए विकलादेश अर्थात् नय वाक्य उन अर्थों का पृथक बोध कराता है । इस प्रकार सकलादेशरूप सप्तभंगी को प्रमाणवाक्य और विकला देशरूप सप्तभंगी को नयवाक्य कहते हैं । कालादि अष्टक इस प्रकार हैं, काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द, जिन से प्रमाणवाक्य से अभेद विवक्षा करके बोध होता है और
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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