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________________ १६८ उपा. यशोविजयरचिते तथैक स्मिन् देशे स्वपर्यायैः सद्भावेणार्पितोऽन्यस्मिस्तु परपर्यायैरसद्भावेनापितोऽपरस्मिंस्तु स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावाऽसद्भावाभ्यामेकेन शब्देन वक्तुमिष्टः 'कुम्भोऽकुम्भोऽवक्तव्यश्च' भण्यते । देशभेदेनैकत्र त्रयबोधनतात्पर्यकवाक्येन तथाबोधादिति विशेषः ॥७॥ [ सप्तमो भंगः ] जो वाक्य हो उसी का प्रयोग करता है । षष्ठभंग की स्थिति इस से विपरीत होती है क्योंकि श्रोता को अवक्तव्यत्व से अनविद्ध "नास्तित्व" और नास्तित्व अनुविद्ध अवक्तव्यत्व का बोध होना इष्ट रहता है, इसलिए वक्ता को भी उसीतरह का बोध जिस से हो वैसे ही वाक्य का प्रयोग करना आवश्यक रहता है। यही षष्ठभंग का अभिप्राय है। (इति षष्ठो भंगः) ॥६॥ [ सप्तभंगी के सप्तम भंग की निष्पत्ति ] (तथैकस्मिन् ) सप्तमभङ्ग का निरूपण इस प्रकार है । जैसे, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ भंगों में भिन्न-भिन्न अवयवों में सत्त्वादि की विवक्षा कर के अवयवों के द्वारा एक अवयवी में उन धर्मो का आरोप करके चतुर्थादिभंग का समर्थन किया गया है, उसीतरह, अवयवी के एक अवयव में स्वपर्याय द्वारा सत्त्व की विवक्षा, दूसरे अवयव में परपर्याय द्वारा असत्त्व की विवक्षा हो, तथा तीसरे अवयव में स्वपर्याय के द्वारा सत्त्व एवं परपर्याय के द्वारा असत्त्व इन दोनों को एक शब्द से कहने की इच्छा हो, उस स्थिति में कुम्भरूप एक अवयवी 'कुम्भ, अकुम्भ और अवक्तव्य' कहा जाता हैं । देशेभेद से एक ही अवयवी में सत्त्व, असत्व और अवक्तव्यत्व एतत् त्रितय प्रकारक बोध अथवा कुम्भत्व, अकुम्भत्व और अवक्तव्यत्व त्रितय प्रकारक पोध होता है । वह वाक्य "कुम्भः स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येन, स्यादवक्तव्य एव" इस प्रकार का होता है, अथवा "अयं स्यात् कुम्भ एव, स्यात् अकुम्भ एव, स्यादवक्तव्य एव" इस प्रकार का होता है। यही सप्तमभंग का स्वरूप है। इसतरह की सप्तभंगी की प्रवृत्ति “साम्प्रतनय" में होती है, इसलिए "साम्प्रतनय" विशेषिततर अर्थ का ग्राहक माना जाता है, इसतरह "ऋजुसूत्र" में उक्त सप्तभंगा की प्रवृत्ति नहीं होती है इसलिए ऋजुसूत्र अविशेषित अर्थ का ग्राही होता है । यही ऋजुसूत्र की अपेक्षा से साम्प्रतनय में विशेषता समझनी चाहिए । यहाँ भी वह ध्यान रखना चाहिए कि अवयवी किसी एक देश में जो सत्व की विवक्षा रहती है वह सत्त्व, असत्त्व और अवक्तव्यत्व दोनों से अनविद्ध रहता है। एवम्, दूसरे अवयव में अपरपर्याय से विवक्षित असत्त्व भी सत्त्व और अवक्तव्यत्व से अनुविद्ध होता है । एवम् अन्य तृतीय अवयव में एकशब्द से सस्वासत्त्व इन दोनों की विवक्षा होने से वैसा शब्द न होने के कारण जो अवक्तव्यत्व की विवक्षा रहती है, वह अवक्तव्यत्व भी सत्त्व और असत्त्व इन दोनों से अनुविद्ध हा बोधित होता है । कारण यह है कि बोद्धा का परस्पर अनुविद्ध सत्त्व, असत्व और अवक्तव्यत्व एतत् त्रितय प्रकारकबोध का इच्छा रहती है । अतः उस के अनुरोध से पता को भी तथाविधबोधजनक वाक्य का प्रयोग करना पडता है, इसलिए
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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