SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयरहस्य व्यवहारनयः १६७ एकदेशे परपर्यायैरसद्भावेनार्पितोऽन्यस्मिंस्तु स्वपरपयायैः सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामेकेन शब्देन वक्तुमभिप्रेतो-अकुम्भोऽवक्तव्यश्च भण्यते । देशभेदेनैकत्राऽसत्त्वाऽवक्तव्यत्वोभयबोधनतात्पर्यकवाक्येण तथाबोधात् ॥६॥ (षष्ठो भंगः) व्यत्वानुविद्ध रहता है और अवक्तव्यत्व अस्तित्वानुविद्ध रहता है, इसलिए पञ्चमभंग को केवल प्रथमभंग और केवल तृतीयभंग नहीं कह सकते हैं। यदि यह प्रश्न हो कि प्रथम और तृतीयभंग में भी अस्तित्व को अवक्तव्यत्व से अनुविद्ध क्यों नहीं माना जाता है ? तो यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि वक्ता को वैसा ही वाक्यप्रयोग करना चाहिए जैसा बोध श्रोता को अभीष्ट हो । प्रथमभंग के श्रोता को अवक्तव्यत्व से अननुविद्ध अस्तित्व का बोध अभीष्ट रहता है, इसलिए अवक्तव्यत्व से अननुविद्ध अस्तित्व का बोध जिस से हो, ऐसे ही वाक्य का प्रयोग वक्ता करता है, वही वाक्य प्रथमभंग रूप होता है और जहाँ पर अस्तित्व से अननुविद्ध अवक्तव्यत्व का बोध श्रोता को अभीष्ट रहता है, वहाँ पर वक्ता भी अस्तित्व से अननुविद्ध अवक्तव्यत्वबोधक वाक्य का प्रयोग करता है, वही वाक्य केवल तृतीयभंगरूप बनता है । पञ्चमभंग में इस से विपरीत स्थिति होती है क्योंकि वस्तु सभी अनन्तधर्मात्मक है, अतः वस्तु में देशभेद से अवक्तव्यत्वानुविद्ध अस्तित्व का बोध और अस्तित्वानुविद्ध अवक्तव्यत्व का बोध श्रोता को जब अभीष्ट होता है तब वक्ता को भी श्रोता के अनुरोध से वैसे ही वाक्य का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है जिस से अवक्तव्यत्वानुविद्ध अस्तित्व का और अस्तित्वानुविद्ध अवक्तव्यत्व का बोध हो, वही वाक्य पञ्चमभंगरूप होता है, जिस का आकार “कुम्भः स्यादस्त्येव, स्यादवक्तव्य एव" यह है ॥ इति पञ्चमो भंगः ॥ ५॥ [ सप्तभोगी के छठे भंग की निष्पत्ति] [एकदेशे] छठे भंग का निरूपण इस प्रकार है । जब कुम्भ के एकदेश में त्वक्त्राणादि परपर्यायों से असत्त्व की विवक्षा होवे और अन्य अवयव में स्वपर्याय के द्वारा सत्त्व तथा परपर्याय के द्वारा असत्त्व को एक शब्द से कहने की इच्छा वक्ता को हो उस स्थि में उन अवयवों के द्वारा कुम्भरूप एक अवयवी अकुम्भ और अवक्तव्य कहा जाता है। कारण, अवयव के भेद से एक अवयवी में असत्त्व और अवक्तव्यत्व का बोध हो जाता है। वह वाक्य "घटः स्यान्नास्येव स्यादवक्तव्य" इस प्रकार का होता है, इसी को षष्ट भंग कहते है । यहाँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि एकदेश में जो असत्त्व की विवक्षा होती है, वह असत्त्व अवक्तव्यत्व से अनुविद्ध रहता है और अपर अवयव में जो अवक्तव्यत्व रहता है वह असत्वानुविद्ध रहता है, इसीलिए केवल द्वितीयभंग की व्यावृत्ति हो जाती है, क्योंकि द्वितीयभग से जो "नास्तित्व" बोधित होता है वह अवक्तव्यत्व से अनुविद्ध नहीं रहता । तृतीय भंग की भी व्यावृत्ति इसी हेतु से होती है कि तृतीयभंग से जो एक शब्द के द्वारा सत्त्वासत्त्व की युगपतविवक्षा से अवक्तव्यत्व का जो बोध होता है, वह नास्तित्व से अनुविद्ध नहीं रहता । कारण, श्रोता को नास्तित्व से अननुविद्ध अवक्तव्यत्व का बोध होना ही अभीष्ट है, इसलिए वक्ता भी नास्तित्व से अननु विद्ध अवक्तव्यत्वबोधक
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy