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________________ १६६ उपा. यशोविजयरचिते ___एकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सत्त्वेनार्पितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामर्पितः-कुम्भोऽवक्तव्यश्च भण्यते । देशभेदेनैकत्र सत्त्वाऽवक्तव्यत्वोभयबोधनतात्पर्यैकवाक्येन तथाबोधात् ॥५॥ [ पञ्चमो भंगः ] घट में "नास्ति घटः” इस रूप से असत्त्व व्यवहार तथा “अयमघटः” इस रूप से अघटत्व व्यवहार भी होता है । यहाँ घट में जो "सत्त्वासत्त्व” दोनों का बोध होता है, वह क्रमिकबोध होता है और सत्त्वासत्त्व दोनों में प्राधान्य रहता है । यदि सत्त्व और असत्त्व की एक साथ प्रधान रूप से विवक्षा मानी जाएगी, तब अवक्तव्यत्व प्रतिपादक तृतीयभङ्ग में ही पर्यवसान हो जायगा, इसलिए क्रमिक विवक्षा मानना तो आवश्यक है । एवम् , एक घटरूप अवयवी में सत्त्व और असत्त्व या घटत्व-अघटत्व की विवक्षा विभागशः नहीं किंतु साक्षात् होगी, तो भी अवक्तव्यत्वबोधक तृतीयभङ्ग में पर्यवसान हो जायगा, इसलिए विभागशः दोनों धर्मो की विवक्षा आवश्यक है। विरुद्ध धर्मविशिष्ट अवयवों के द्वारा अवयवा का विभाग करके अवयवगत विरुद्धधमोका अवयवी मे क्रमिक विवक्षा कर के व्यपदेश करने पर तृतीयभङ्ग में पर्यवसान नहीं होता है, अतः जैसे एक हा पुरुष में बालपर्याय से बालत्वबोध और कुमारपर्याय से अबालत्व का बोध होता है, उसा तरह घट में स्वपर्याय से अस्तित्व विवक्षित होने से घट कहा जाता है और परपर्याय से नास्तित्व विवक्षित होने से अघट भी कहा जाता है । [इति चतुर्थो भङ्गः] ॥८॥ [ सप्तभगी के पंचम भग की निष्पत्ति ] [एकस्मिन] जहाँ कुम्भ के एक अवयव में कुम्बुग्रीवादि स्वपर्यायों से सत्त्व की विवक्षा हो और अन्य अवयव में स्वपर्याय कम्बुग्रीवादि और परपर्याय त्वक्त्राणादि इन दोनों से सत्त्व और असत्त्व इन दोनों की एक साथ विवक्षा हो, वैसे स्थल में कुम्भ कथञ्चित् कुम्भ और कथञ्चित् अवक्तव्य कहा जाता है, क्योंकि देश भेद से एक ही कुम्भ वस्तु में सत्त्व-अवक्तव्यत्व इन दोनों का बोध हो, इस तात्पर्य से 'स्यादस्ति कुम्भः स्यादवक्तव्यश्य" इस पश्चम भङ्गात्मक वाक्य का प्रयोग होता है। अत: एक वस्तु में देशभेद से सत्व-अवक्तव्यत्व एतदउभयप्रकारक बोध होता है। यहाँ यह में रहना चाहिए कि जिस देश में अस्तित्व की विवक्षा रहती है वहाँ अस्तित्व, अवक्तव्यत्वस्वभाव से अनुविद्ध ही रहता है और अपर देश में जो अस्तित्व-नास्तित्व इन दोनों की युगपत् विवक्षा से अवक्तव्यत्व रहता है, वहाँ भी अवक्तव्यत्व अस्तित्वानुविद्व ही रहता है । इस स्थिति में पञ्चमभङ्ग की प्रवृत्ति होती है। यहाँ पर यह आशंका उठती है कि स्वपर्यायों से अस्तित्व की विवक्षा जैसे प्रथम भङ्ग में होती है, वैसे पञ्चमभङ्ग में भी होती है, अतः पञ्चमभङ्ग को प्रथमभङ्गरूप क्यों नहीं माना जाय ? तथा अस्तित्व, नास्तित्व एतत् उभयरूप से युगपद विवक्षा तृतीयभंग में भी रहती है, इसलिए तृतीयभंग में पञ्चमभंग का अतिप्रसंग आता है। इस का समाधान यह है कि प्रथमभंग में "अस्तित्व" अवक्तव्यत्वानुविद्ध नहीं रहता है और तृतीयभंग में अवक्तव्यत्व अस्तित्वानुविद्ध नहीं रहता है। पञ्चमभंग में अस्तित्व अवक्त
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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