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________________ नयरहस्ये सप्तभंगीविचारः चेत् ? न, अप्रसिद्धः । विकल्प बलात्कथञ्चित् प्रसिद्धावप्यनापेक्षिकत्वेन तत्र स्यात्प्रयोगानुपपत्तेः । तथा चापेक्षिक विशेषविश्रान्तवक्तव्यत्वप्रतिपक्षावक्तव्यत्वासिद्धौ वक्तव्यत्वविषयस्याष्टमभङ्गस्यापत्तेः । अवक्तव्यत्वप्रतिपक्षस्य विशेषविश्रान्तत्वादेव नाष्टमभङ्गापत्तिरिति हि सम्प्रदाय इति चेत् ? पद से सम्भव नहीं है और न एक विधेयक भी होगा, अतः उक्त शाब्दबोधाऽविषयत्वरूप अवक्तव्यत्व के रहने से तृतीयभंग की प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं होती है। द्वितीयभंग में जो परपर्यायावच्छेदेन अवक्तव्यत्वोल्लेख की आपत्ति पूर्वलक्षण में लगाई गई थी वह भी इस लक्षण में नहीं आती है, क्योंकि अस्तित्व-नास्तित्व एतत् उभयविधेयकबोध ही तृतीयभग को अभीष्ट है, वह तो द्वितीयभग में नहीं रहता है। अतः अवक्तव्यत्व का उल्लेख द्वितीय भग में नहीं प्राप्त होता है । उभय अर्थ में सांकेतिक एकपदजन्यबोध को लेकर जो बाध दोष पूर्वलक्षण में दिया गया था उसका भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों में सकेतित उभयादि एकपद से जो शाब्दबोध होता है, वह उभयविधेयक ही होता है । तादृश पद जन्य शाब्दबोध विषयभूत विधेयता, अस्तित्व और नास्तित्व मे भिन्न भिन्न रहती है, इसलिए वह शाब्द बोध स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न एकविधेयक नहीं होता है अतः विवक्षित शाब्दबोधाs विषयत्वरूप अवक्तव्यत्व वहाँ रहता ही है, इसलिए बाध का सम्भव ही नहीं होता है । [ अप्रसिद्धि दोष से नए निर्वचनवाला प्रयास निष्फल ] परन्तु यह समाधान भी युक्त नहीं है । कारण, स्व और पर एतत् उभयपर्यायावच्छिन्न कोई एक धर्म तो मिलता ही नहीं है । घटादि में स्वपर्यायावच्छिन्न सत्त्वधर्म रहता है, परन्तु वह परपर्यायावच्छिन्न नहीं है और परपर्यायावच्छिन्न असत्त्वधर्म जो घटादि में है वह स्वपर्यायावच्छिन्न नहीं है, इसीलिए उभयपर्यायावच्छिन्न कोई भी एक धर्म प्रसिद्ध नहीं होता है। अतः तथाविध एकधर्म विधेयक शाब्दबोध भी अप्रसिद्ध हो जाता है, इसलिए तथाविध शाब्दबोध विषयत्वरूप अवक्तव्य की भी अप्रसिद्धि हो जाती है । इस हेतु से तृतीयभग की प्रवृत्ति का सम्भव कहीं भी नहीं होगा। यदि कह कहे कि-'प्रमाण से जो वस्तु सिद्ध नहीं होती है वह भी विकल्पसिद्ध मानी जाती है । इस नियम के अनुसार उक्त अवक्तव्यत्व प्रमाणसिद्ध न होने पर भी विकल्पसिद्ध तो होगा ही, उसी को लेकर तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति होगी'-परन्तु यह कहना भी संगत नहीं है क्योंकि विकल्पसिद्ध वस्तु को किसी की अपेक्षा नहीं रहती है। अत एव वह निरपेक्ष मानी जाती है और "स्यात्” पद अपेक्षा को सूचित करता है, इस लिए विकल्पसिद्ध अवक्तव्यत्ववाचक अवक्तव्य शब्द के साथ स्थात् पद का प्रयोग नहीं हो सकेगा, तब “घटः स्यादवक्तव्य एव” इसतरह के तृतीयभङ्ग का उल्लेख नहीं हो सकेगा। [निरपेक्ष वक्तव्यत्व के अष्टमभंग की आपत्ति ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि “स्यात्" पद का प्रयोग भले ही न हो तो भी 'यह अवक्तव्य ही है; इस रूप से ही तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति होगी तो क्या हर्ज है ?'-तो
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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