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________________ उपा. यशोविजयरचिते न, प्रकृतविधिनिषेधसंसर्गावच्छिन्नैक विधेयताकशाब्दबोधाविषयत्वरूपस्याऽवक्तव्यत्वस्य स्वपरपर्यायोभयावच्छेदेन तृतीयभंगादुपस्थित्या दोषाभावाद् , अवच्छिन्नान्तोपानादवक्तव्यत्वैकविधेयतामादाय न बाध इति दिक ॥३॥ [तृतीयो भंगः] इस का समाधान यह है कि निरपेक्ष अवक्तव्यत्व को लेकर यदि "स्यात्" पद से रहित "अय अवक्तव्य एवं" इस रीति से तृतीयभङ्ग की प्रवृत्ति का समर्थन किया जायगा तो निरपेक्ष वक्तव्यत्व को लेकर तदबोधक "अय वक्तव्य एवं" इस रीति से आठवे भङ्ग की भी प्रवृत्ति का प्रसंग आयेगा, जो किसी आचार्य ने नहीं माना है, इसलिए अप्रमाणिक है। इस का कारण यह है कि, आपेक्षिक वक्तव्यत्व अस्तित्वादिरूप किसी विशेष में ही विश्रान्त रहता है, उस का प्रतिपक्ष अर्थात विरोधी तो आपेक्षिक अवक्तव्यत्व ही हो सकता है, उस की पूर्वोक्त रीति से अप्रसिद्धि ही है क्योंकि स्वपरपर्यायावच्छिन्न कोई भी एक धर्म मिलता नहीं है। इसलिए स्वपरपर्यायावच्छिन्न एकधर्मनिष्ठविधेयताबोध ही अप्रसिद्ध हो जाता है, तब तथाविधबोधविषयत्व भी अप्रसिद्ध होगा और तथाविधबोधविषयत्वाभावरूप अवक्तव्यत्व भी अप्रसिद्ध हो जाता है । तब तो, विकल्प के आधार पर प्रसिद्ध किये गए निरपेक्ष वक्तव्य को लेकर ही तृतीयभङ्ग का समर्थन किया जा सकता है, इस स्थिति में निरपेक्ष अवक्तव्यत्व का प्रतिपक्ष निरपेक्ष वक्तव्यत्व ही होगा, अतः निरपेक्ष वक्तव्यत्व विषयक अष्टमभङ्ग का प्रसंग प्रस्तुत अवक्तव्यत्व का लक्षण मानने पर आयेगा। [ अष्टमभंग की आपत्ति का प्रतिकार अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-'आपेक्षिक अवक्तव्यत्व पक्ष में भी आपेक्षिक वक्तव्यत्व विषयक अष्टमभङ्ग का प्रसंग जैसे नहीं है, उसीतरह निरपेक्ष अवक्तव्यत्व पक्ष में भी अष्टमभङ्ग का प्रसंग नहीं होगा ।-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है । कारण, आपेक्षिक अवक्तव्यत्व से आपेक्षिक वक्तव्यत्व का ही निरास किया जाता है, वह आपेक्षिक वक्तव्यत्व कथञ्चित् अस्तित्व-कथञ्चित् नास्तित्वादिरूप है, जिस का प्रतिपादन "स्यादस्त्येव घटः" "स्यान्नास्त्येव घटः" इत्यादि भङ्गों से हो ही जाता है, इसलिए तदबोधक अष्टमभड़की आवश्यकता नहीं रहती है, अत: आपेक्षिक अवक्तव्यत्व पक्ष में अष्टमभङ्ग के होने का अवसर ही नहीं आता है। निरपेक्ष अवक्तव्यत्व का प्रतिपक्ष जो निरपेक्ष वक्तव्यत्व है वह कहीं भी विश्रान्त (अवस्थित) नहीं है। अतः प्रस्तुत अवक्तव्यत्व के निर्वचन में अष्टम भंगप्राप्तिस्वरूप दोष दुर्निवार है । यहाँ तक पूर्वपक्षी की आशंका प्रस्तुत है । [ दीर्घ आशंका का समाधान तृतीय निर्वचन के स्वीकार से ] [न, प्रकृत] पूर्वपक्षी ने तृतीयभङ्ग का सम्भव नहीं हो सकता है, इस आशंका को प्रस्तुत किया । उस का समाधान सिद्धान्ती यह प्रस्तुत करते हैं कि पूर्व में जो दो प्रकार के अवक्तव्यत्व के निर्वचन किए गए हैं, उन में सदोषत्व का समर्थन पूर्वपक्षी ने किया है, वे दोष तृतीयप्रकार के अवक्तव्यत्व का जो निर्वचन किया जाता है, उस में संभवित नहीं होते हैं। प्रकृत विधि निषेध संसर्गावच्छिन्न एकविधेयता के शाब्दबोधाऽविषयत्वरूप
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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