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________________ १६२ उपा. यशोविजयरचिते अथ स्वपरपर्यायेाभयावच्छिन्नैक विधेयताकशाब्दबोधविषयत्वमे वाऽवक्तव्यत्वम् । द्वितीयभङ्गे च कुम्भनञ्पदाभ्यामपि तात्पर्यवशादेक विधेयक बोधस्यैवोद्देश्यत्वान्नातिप्रसङ्गः, उभयादिपदाच्च बुद्धिस्थशक्तादुभयविधेयक बोधस्यैवोद्देशान्न बाध इति शाब्दबोधाऽविषयत्वरूप अवक्तव्यत्व का अभाव घट में रहेगा, इसलिए तृतीयभंग के अप्रवृत्तिप्रसंगरूप दोष का निवारण नहीं होता है । [ एक पद मात्र जन्यत्व की विवक्षा में भी आपत्ति ] यदि यह कहे कि - ' शाब्दबोध में जो एकपदजन्यत्व विशेषण दिया गया है, उस विशेषणवाचकपद से एकपदमात्रजन्यत्व की ही विवक्षा है, इसलिए सत्-असत् पद द्वय से जन्य शाब्दबोध में एकपदमात्र जन्यत्व नहीं रहता है, अतः एकपदमात्रजन्य स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न प्रकारक शाब्दबोधाऽविषयरूप अवक्तव्यत्व घटादि में रहेगा । इसलिए तृतीयभंग की प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं होगी ।' - परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि परपर्यायेण “स्यान्नास्त्येव कुम्भः " यह द्वितीय भंग कुम्भ और नन् इन दोनों पदों के द्वारा ही कुम्भ में परपर्यायावच्छेदेन अकुम्भत्व का बोध कराता है, इसलिए द्वितीयभंगजन्य शाब्दबोध में भी एकपदमात्र जन्यत्व नहीं रहता है, अतः द्वितीयभंग में भा एकपदमात्रजन्य परपर्यायावच्छेदेन अवक्तव्यत्व का उल्लेख हो जायगा । वस्तुस्थिति तो यह है कि परपर्यायावच्छेदेन कुम्भ, नास्तिपद जन्य अकुम्भत्वप्रकारक शाब्दबोध का विषय बनता है, इसीलिए अवक्तव्यत्व का उल्लेख उस भंग में नहीं होता है, उस की आपत्ति होगी । दूसरी बात यह है कि “पुष्पदन्त" पद का संकेत सूर्य और चन्द्र में एक ही है, उस एक संकेत से उक्त "पुष्पदन्त" पद से चन्द्र और सूर्य इन दोनों का बोध जैसे होता है, उसी तरह प्रकृत में भी सत्त्व और असत्त्व इन दोनों अर्थों में किसी एक पद का संकेत मानकर उस एकपदमात्रजन्य स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न विधेयभूत, सत्त्वासत्त्वोभयप्रकारक शाब्दबोधविषयता ही घटादि में रह जायगी, तब तो उक्त शब्दबोधाऽविषयत्वरूप अवक्तव्यत्व का बाध हो जाने से भी तृतीयभंग की प्रवृत्ति नहीं होगी । अतः अवक्तव्यत्व का निर्वचन जो आप ने किया है, वह संगत नहीं है । - [ अवक्तव्यत्व का नये ढंग से निर्वचन से समाधानप्रयास ] ( अथ स्वपरपर्याय) आशंकाकार के समक्ष यदि यह समाधान प्रस्तुत किया जाय किस्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न एकविधेयक एकपदमात्र जन्य शाब्दबोधाऽविषयत्व को ही अवक्तव्यत्व शब्द से विवक्षित करेंगे, तब कोई दोष नहीं होगा क्योंकि प्रथमभंग में स्व पर्यायावच्छिन्न सत्त्वरूप एकविधेयक शाब्दबोध होता है, स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न एकविधेयक शाब्दबोध नहीं होता है, इसलिए वहाँ अवक्तव्यत्व का प्रसंग नहीं आता है । द्वितीयभंग में भी स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न एकविधेयक शाब्दबोध नहीं होता है, किन्तु परपर्यायावच्छिन्न असत्त्वरूप एकविधेयक शाब्दबोध ही होता है, इसलिए वहाँ भी अवकव्यत्व का प्रसंग नहीं आता है। तृतीयभग में तो स्वपर्यायावच्छिन्न सत्व और परपर्यायावच्छिन्न असत्त्व एतत् उभय विधेयक शाब्दबोध करना चाहते हैं, परन्तु वह किसी एक
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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