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________________ नयरहस्ये सप्तभङ्गीविचारः च्छिन्नप्रकारकशाब्दबोधाऽविषयकत्वमेवाऽवक्तव्यत्वमिति न दोष" इति चेत् ? न, उभयपदजन्यस्याप्येकपदजन्यत्वाव्यभिचारात् । कुम्भनजपदाभ्यामकुम्भत्वबोधके द्वितीयभंगे परपर्यायावच्छेदेनाप्यवक्तव्यत्वोल्लेखापत्तेः । प्रकृतेऽप्येकेन तदुभय-आदिसाङ्केतिकपदेन बोधसम्भवाद् बाधाच्च । त्वोपलक्षित सत्वविशिष्ट घट घटात्मक एक शब्द से वाच्य होगा, इस में कोई बाधक नहीं दीखता है, अतः एक शब्दवाच्यत्व स्वपर्यायावच्छिन्नत्वोपलक्षित सत्त्वविशिष्ट घट में रहेगा, इसलिए उस स्थिति में “स्यादवक्तव्यो घटः" यह तृतीयभङ्ग नहीं प्रवृत्त होगा।" -परन्तु यह कहना ठीक नहीं है। कारण, उसी रीति से स्वपरपर्यायावच्छिन्नत्व से उपलक्षित सत्त्वाऽसत्त्व विशिष्ट घट भी कथञ्चित् एकपद वाच्य बन जायगा, तब "अवक्तव्यत्व' घट में नहीं रहेगा, इसलिए स्वपर्यायावच्छिन्न सत्त्वविशेषित और परपर्यायावच्छिन्न असत्त्वविशेषित घट में भी “स्यादवक्तव्यो घटः” यह तृतीयभङ्ग प्रवृत्त नहीं होगा। ___ यदि कहे कि-'स्वपर एतत् उभयपर्यायावच्छिन्नत्व विशिष्ट सत्वाऽसत्त्वोभयविशिष्ट घट तो किसी एकपदवाच्य नहीं हो सकता है, इसलिए तृतीयभंग की प्रवृत्ति होगी।'परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण, परपर्यायावच्छिन्नत्वविशिष्ट असत्त्वयुक्त घट भी किसी एक पद से वाच्य नहीं होता है, इसलिए उस में भी अवक्तव्यत्व आ जाने से द्वितीयभंग के स्थान में भी तृतीयभङ्ग का प्रसंग आएगा अर्थात् जहाँ "स्यान्नास्त्येव घटः परपर्यायः” ऐसा द्वितीयभङ्ग होता है यहाँ "स्यादवक्तव्यो घटः परपर्यायः" यह तृतीयभङ्ग प्रवृत्त हो जायगा। [अवक्तव्यत्वाभाव की आपत्ति का वारण अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-"उभयपर्यायावच्छिन्न वस्तु में भी कथञ्चित् एकपदवाच्यत्व लेकर अवक्तव्यत्वाभाव की आपत्तिरूप दोष जो दिया गया है वह युक्त नहीं है। कारण, विधेयांश विशेष्यक जो एकपद जन्य स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न प्रकारक शब्दबोध, तथाविधशाब्यबोधाऽविषयत्वरूप ही अवक्तव्यत्व हमें विवक्षित है। स्वपरपर्यायावच्छिन्न किसी भी रूप से घट किसी एकपद से जन्य शाब्दबोध का विषय नहीं होता है, अतः घट का स्वपर्याय जो कम्बुग्रीवत्वादि और परपर्याय जो त्वक्त्राणादि, एतदुभयावच्छिन्न घटत्वादि प्रकारक घटादि एकपदजन्य शाब्दबोध विषयता घटादिवस्तु में न रहने के कारण, ताश शब्दबोधाऽविषयत्वरूप अवक्तव्यत्व घट में रहेगा, इसलिए अवक्तव्यत्वाभाव की आपत्ति नहीं आएगी। इसतरह "स्यादवक्तव्य घटः” इस तृतीयभंग की प्रवृत्ति भी होगी ।'-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं होगा । क्योंकि घट स्वपर्यायरूप से सत् है और परपर्यायरूप से असत् है, इसतरह सत् और असत् इन उभयपदजन्य स्वपरपर्यायावच्छिन्न शाब्दबोध का विषय घट होता है, यह तो आक्षेपकर्ता को भी मान्य है । तब उभयपदजन्यशाब्दबोध में भी एकपदजन्यत्व अवश्य रहता है, इस रीति से एकपद जन्य स्वपरपर्यायोभयावच्छिन्न शाब्दबोधविषयत्व ही घट में रह जाता है, अतः तथाविध २१
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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