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________________ १६० उपा० यशोविजयरचिते तथा सर्वोऽपि घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावाऽसद्भावाभ्यामर्पितोऽवक्तव्यो भण्यते, स्वपरपर्यायसत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामेकेन केनापि शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् । अथैकपदवाच्यत्वं घटस्य स्वपर्यायावच्छिन्नत्वोपरागेणापि नास्तीति तदवच्छेदेनाप्यवाच्यतापत्तिः, वस्तुतः स्वपर्यायावच्छिन्नस्यैकपदवाच्यत्वेनावक्तव्यत्वाभावे च वस्तुतः कथञ्चिदुभयपर्यायावच्छिन्नस्याप्येकपदवाच्यत्वेन तथात्वापत्तेः, अन्यथा परपर्यायावच्छिन्नस्याप्यवक्तव्यत्वापत्तेः । “विधेयांशे एकपदजन्यस्वपरपर्यायोभयावअवच्छेदक प्रमेयत्व होगा तब अकुम्भत्व का अवच्छेदक नहीं होगा क्योंकि यह भी एक नियम है कि जो जिस का अवच्छेदक होता है, वह तदभाव का अवच्छेदक नहीं होता है, इसलिए प्रमेयत्वावच्छेदेन कुम्भ में कुम्भत्व का सद्भाव ही अर्पित होता है । इस स्थिति में 'प्रमेयत्वरूपेण स्यान्नास्त्येव कुम्भः' इस द्वितीय भङ्ग का प्रसंग नहीं आता है॥ [द्वितीय भङ्ग] [ सप्तभंगी के तृतीय भंग की निप्पत्ति ] तथा सर्वो] घट के स्वपर्याय कम्युग्रीवत्वादि से घट में सदभाव का अर्पण किया जाय और उसी काल में त्वक्त्राणादि परपर्याय से असदभाव का अर्पण हो, इस स्थिति में स्वपर्याय से सत्त्व विशेषित और परपर्याय से असत्त्वविशेषित किसी भी घट का किसी भी एक शब्द से प्रतिपादन शक्य नहीं है, अतः सत्त्वविशेषित और असत्त्वविशेषित घट अवक्तव्य बन जाता है । इस स्थिति में "स्याद अवक्तव्यो घटः” इस तृतीय भङ्ग का उत्थान होता है। [ सकलस्वपर्यायावच्छिन्न सत्त्वविशिष्ट घट के अवक्तव्यत्व की आशंका ] (अथकपदे) यहाँ एक दीर्थ आशंका प्रस्तुत की गयी है। स्वपर्यायावच्छिन्न सत्त्वविशेषित और परपर्यायावच्छिन्न असत्त्वविशेषित घट एक काल में किसी भी शब्द से प्रतिपादित हो सकता नहीं है, इस कारण यदि तृतीयभङ्ग का उत्थान माना जाय तो, घट के जितने पर्याय हैं, उन सकल पर्यायावच्छिन्न सत्त्वविशेषित घट का भी तो कथन किसी एक पद से सम्भव नहीं है, अतः सकल स्वपर्यायावच्छेदेन भी घट में अवाच्यत्व की आपत्ति होगी। इस स्थिति में जहाँ प्रथमभङ्ग का उत्थान होता है वहाँ भी तृतीयभङ्ग के उत्थान का प्रसंग होगा, अर्थात् स्वपर्यायावच्छिन्न सत्त्वविशेषित घट में भी "स्यादवक्तव्यो घटः” यह भङ्ग उपस्थित होगा। [ सकल पर्याय को उपलक्षण मानने से समाधान अशक्य ] यदि यह कहा जाय कि-"यद्यपि जितने घट के पर्याय हैं उन सकल पर्यायावच्छिन्नसत्त्व विशिष्ट घट का वाचक कोई पद नहीं है, तथापि धट में विधेयभूत सत्त्व में स्वपयावच्छिन्नत्व को विशेषण न मानकर उपलक्षण मानेगे. तब स्वसकलपर्याया
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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