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________________ १२२ उपा. यशोविजयरचिते है, इसलिए निम्बादि पदार्थ में बहुत्व संख्या भासित होती है और "वनम्' इस उत्तर पद में एकवचन का प्रयोग है, इसलिए वनरूप अर्थ में एकत्व संख्या प्रतिपादित है । सामान्यत: दोनों पदों का अर्थ एक होने पर भी वचन के भेद से या संख्या के भेद से दोनों पदों का अर्थ भिन्न-भिन्न है, ऐसा साम्प्रतनय मानता है । “स पचति, त्वं पचसि, अहं पचामि” इन वाक्यों में 'स, त्वं, अहं" इन पदों में बोधित पुरुष भिन्न-भिन्न है, इन पुरुषों के भेद से भिन्न-भिन्न पाकक्रिया तीनों वाक्यों से बोधित होती है, यह साम्प्रत की मान्यता है । “घटः, कम्भः अस्ति” यहाँ काल, कारक, लिंग, संख्या और पुरुष सब समान होने से अर्थ का भेद नहीं है । साम्प्रतनय की इसतरह की मान्यता के अनुसार कुछ अभिप्रायविशेष ऐसे जरूर होंगे जो शब्द का काल-कारक-लिंगादि विशिष्ट अर्थ की बोधकता में तात्पर्य मानेगे । वे काल कारकादि भावमात्र नहीं किंतु उस से भी कुछ अधिक ही हैं, इसलिए "शब्दनिष्ठ भावमात्र बोधकता पर्यवसायी अध्यवसायत्वम्' इस लक्षण की अव्याप्ति वैसे स्थलों में जरूर होगी, अतः उक्त निष्कृष्ट अर्थ का वर्णन संगत नहीं लगता है। इस प्रश्न के समाधान में ग्रन्थकार बताते हैं कि "तज्जातीयाध्यवसायत्वम्' ऐसा लक्षण करेंगे, तब अव्याप्ति नहीं होगी । तात्पर्य, यह लक्षण जातिघटित बनाया गया है, अतः "शब्दनिष्ठभावमात्रबोधकत्वपर्यावसायी-अध्यवसाय विशेष में वृत्ति हो और नयत्व का व्याप्य हो ऐसे जातिविशेष से विशिष्टाध्यवसायत्व" ऐसा लक्षण यहाँ विवक्षित किया है। "घटः, कुम्भः, कुट:" ऐसे स्थलों में अर्थ का भेद न होने के कारण "घटादि" शब्दों की भावमात्रबोधकता रहती है, इसलिए यहाँ "भावमात्रबोधकता पर्यवसायीअध्यवसाय" है । इस अध्यवसाय में “साम्प्रतत्व" जाति रहती है, जो "नयत्व" जाति की अपेक्षा से व्याप्य भी है, यह साम्प्रतत्व जाति उन अध्यवसायों में भी है, जिन अध्यवसायों से भावातिरिक्त "काल, कारक, लिंगादि भेद की बोधकता में भी शब्द का तात्पर्य रहता है । अत: तादृश जाति विशिष्ट उन अभिप्रायों का भी संग्रह हो जाता है, इसलिए कहीं भी अव्याप्ति का सम्भव नहीं रहता है । [शब्द नय के लक्षण की समभिरूढादिमें अतिव्याप्ति का वारण ] यदि यह कहा जाय कि-समभिरूढ और एवम्भूतनय भी अध्यवसायविशेषरूप ही हैं और उनमें शब्दगत भावमात्र बोधकतापर्यवसायीत्व भी रहता है, इसलिए वहाँ अतिव्याप्ति का प्रसंग इस लक्षण में आवेगा, क्योंकि "शब्दगत भावमात्र बोधकता पर्यवसायी" कुछ अध्यवसाय उन नयों में भी हैं, वैसे अध्यवसायों में समभिरूढत्व और एवम्भूतत्व जाती है । ये दोनों जातियाँ भी नयत्वव्याप्य हैं, और इन जातियों से युक्त समभिरूढ और एवम्भत ये दोनों नय होते हैं । इसरीति से “साम्प्रतनय" का लक्षण वहाँ भी घट जाता है।"-इस का समाधान ग्रन्थकार इसतरह बताते हैं कि शब्दनय भावमात्र बोध होता है, इसलिए शब्दनय के अवान्तरभेद जसे “साम्प्रत" है, वैसे ही समभिरूद और एवम्भूतनय भी है, अतः अतिव्याप्ति का सम्भव है। किंतु समभिरूढत्वेन अभिमत अध्यवसाय भिन्नत्व तथा एवम्भूतत्वेन अभिमत अध्यवसायभिन्नत्व यह विशेषण "साम्प्रतनय"
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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