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________________ नयरहस्ये साम्प्रतनयः बोधकरवपर्यवसाथीति तदर्थः। तथात्वं च भावातिरिक्त विषयांश उक्तसङ्केतस्याऽप्रामाण्यग्राहकतया निर्वहति । तज्जातीयाध्यवसायत्वं च लक्षणमिति न क्वचिदनीदृशस्थलेऽव्याप्तिः समभिरूढायतिव्याप्तिश्च अध्यवसाये विषये वा तत्तदन्यत्वबिशेषणदानान्निराकरणीया । ग्रन्थकार इस लक्षण का सारभूत अर्थ यह बताते हैं कि "नाम" का जो वर्तमान पर्याय, एवं स्थापना द्रव्य और भाव का जो वर्तमान पर्याय ये सभी प्रत्येक रूप में विशिष्ट हैं अर्थात् एकदूसरे से भिन्न हैं । इसतरह के "नामादि" में भी जिन का संकेत गृहीत है अर्थात् 'इस का वाचक यह शब्द है' इसतरह जिस शब्द के वाच्यवाचकभावरूप संकेत का ज्ञान संज्ञा-संज्ञि सम्बन्धकाल में हो चुका है उस शब्द का भावमात्र की बोधकता में पर्यवसान जिस अभिप्राय विशेष से होता है वह अभिप्राय विशेष ही साम्प्रतनय का लक्षण है । इस अर्थवर्णन से यह भाव निकलता है कि वर्तमान नामादि में शब्द के संकेत का ज्ञान भले हो, तथापि साम्प्रतनय की दृष्टि से वह शब्द केवल वर्तमान भाव का ही बोधक होता है । वर्तमान नाम, वर्तमानस्थापना और वर्तमानद्रव्य का बोधक नहीं होता है क्योंकि नामादि में जो संकेत ग्रह पूर्व में हुआ हैं, उस में अप्रामाण्य बुद्धि का जनक “साम्प्रतनय' होता है । इस हेतु से ही शब्द का वर्तमानभावमात्रबोधकता में पर्यवसान साम्प्रतनय मानता है। [साम्प्रतनय के लक्षण की अव्याप्ति में आशंका ] __ यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि भाज्योक्तलक्षण का निकृष्ट अर्थ जो आपने बताया है, उस से साम्प्रतनय का लक्षण यह सिद्ध होता है कि जिस अभिप्राय विशेष से वनमानभाषमात्र बोधकता में शब्द का पर्यवसान हो वही साम्प्रतनय है। किंतु ऐसा लक्षण करने पर ऐसे स्थलों में अव्याप्ति का प्रसंग होगा जहाँ कोई अध्यवसायविशेष भाव से अधिक कालादि भेद से अर्थभेद की बोधकता को भी शब्द में स्वीकार करेगा । आशय यह है कि शब्दनय 'काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष' आदि के भेद से अर्थ का भेद प्रदर्शित करता है, जैसे "बभूव, भवति, भविष्यति" इन तीनों शब्दों में भवनरूप क्रिया को वह एक नहीं मानता है किन्तु वर्तमान, भूत और भविष्यत् काल के भेद से तीनों शब्दों से भिन्न-भिन्न अर्थ का बोध मानता है। एवं, “घटः अस्ति, घटं पश्यति" इन दोनों वाक्यों में घट शब्द का प्रयोग है, प्रथमवाक्यगत “घट” कर्ता है, द्वितीयवाक्यगत “घट" कर्म है। यदि निर्विशेष ही घट दोनों वाक्यों में विवक्षित होगा, तो प्रथमवाक्यगत घट में जो कर्तृत्व का व्यवहार होता है और द्वितीयवाक्यगत घट में जो कर्मत्व का व्यवहार होता है वह न होगा। इसलिए इन दोनों वाक्यों से बोधित घटद्वय में कुछ विशेष अवश्य मानना चाहिए, जिस से कर्तत्व-कर्मत्व व्यवहार उपपन्न हो सके. वह विशेष या भेद कारककृत है । इसीतरह शब्दनय में "तटः, तटी, तटम्” इन तीनों पदों से बोधित तट भिन्न-भिन्न है। यहाँ तट का भेदक क्रमशः पुंस्त्व, स्त्रीत्व, नपुंसकत्वरूप लिंग हैं । "निम्बाम्रकदम्बाः वनम् ” इस वाक्य के पूर्व पद में बहुवचन का प्रयोग
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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