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________________ नयरहस्ये शब्दनयः १५३ सम्प्रदायेऽपि 'विशेषिततरऋजुसूत्राभिमतार्थग्राही अध्यवसायविशेष' इति 'शब्दः' इत्यापादितसंज्ञान्तरस्याऽस्य लक्षणम् । “इच्छइ विसे सियतर, पच्चुप्पणं गओ के लक्षण में यदि लगा दिया जायगा, तब अतिव्याप्ति का निराकरण हो जायगा । इस स्थिति में “साम्प्रतनय का लक्षण यह होगा कि समभिरूढाध्यवसाय से भिन्न और एवम्भूताध्यवसाय से भिन्न ऐसा जो शब्द निष्ठभावमात्रबोधकतापर्यवसायी अध्यवसाय, उस में वृत्ति जो नयत्वव्याप्य जाति, उस जातिवाला अध्यवसाय साम्प्रत नय है । शब्द मे भावमात्रबोधकता का पर्यवसान जिस समभिरूढाध्यवसाय और एवम्भृताध्यावसाय से होता है, उन से भिन्न शब्दनिष्ठ भावमात्रबोद्यकता पर्यवसायी-अध्यवसाय केवल साम्प्रतत्वेन अभिमत अध्यवसाय ही होगा, समभिरूढ और एवम्भूत नहीं होगा, इसलिए अतिव्याप्ति का प्रसंग नहीं आयेगा। ग्रन्थकार ने "समभिरूढ और एवम्भूत" में अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए एक दूसरा भी प्रकार बताया है। वह यह है कि "समभिरूढाध्यवसाय" का जो विषय और "एवम्भूताध्यवसाय" का जो विषय उस से “साम्प्रत" का विषय भिन्न होता है, क्योंकि त्राभिमत विषय की अपेक्षा से "साम्प्रत" का विषय अल्प होता है तथा समभिरूढ से अभिमत विषय की अपेक्षा से एवम्भूत का विषय और भी अल्प होता है। इसलिए साम्प्रत के विषय में, समभिरूढ और एवम्भूत के विषयों का भेद यदि विशेषणरूप में लगा देंगे, तो भी अतिव्याप्ति का प्रसंग नहीं आयेगा । इस स्थिति में “साम्प्रत' का लक्षण यह होगा कि समभिरूढ और एवम्भूत के विषय से भिन्न विषयक हो ऐसा जो शब्दनिष्ठभावमात्र बोधकता पर्यवसायी-अध्यवसाय, उस में वृत्ति नयत्वव्याप्य जातिवाला अध्यवसाय साम्प्रतनय है । इस लक्षण में अतिव्याप्ति नहीं होगी क्योंकि समभिरूढ के विषय में स्वभिन्नत्व नहीं रहता है और “एवम्भूत" के विषय में भी एवम्भूत विषयभिन्नत्व नहीं रहता है । साम्प्रत के विषय में तो “समभिरूढ विषय भिन्नत्व और एवम्भूतविषय भिन्नत्व" रहता है, इसलिए साम्प्रताध्यवसाय में लक्षण जायेगा और समभिरूढ तथा एवम्भूत में लक्षण नहीं जायेगा। [ साम्प्रदायिक मतानुसार साम्प्रतनय का लक्षण] (सम्प्रदायेऽपि) प्रकृत सन्दर्भ से ग्रन्थकार यह बताना चाहते हैं कि “साम्प्रतनय" का जो लक्षण परिष्कृत कर के बताया गया है, उसी अभिप्राय का लक्षण सम्प्रदाय मत में भी है । भेद इतना पडता है कि उक्त लक्षण में लक्ष्य का निर्देश "साम्प्रत" पद से किया है और सम्प्रदाय में जो "साम्प्रत" का लक्षण है, उस में "शब्द" इस सामान्य नाम से “साम्प्रतनय" रूप लक्ष्य का निर्देश किया है अर्थात "साम्प्रतनय” का ही "शब्द" इस संज्ञान्तर से व्यवहार किया है । यहाँ सम्प्रदाय शब्द से जिनभद्रक्षमाश्रमणप्रभृति प्राचीनतम आचार्यो का मत विवक्षित है। इन के मत में द्रव्यार्थिक के नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुर त्र ये चार भेद माने गये हैं, तथा पर्यायार्थिकनय के शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये तीन भेद माने गये हैं, उन के मत में साम्प्रतनय का "शब्द" पद से ही व्यवहार किया गया है । सम्प्रदायानुसारी लक्षण विशेषिततर ऋजुसूत्राभिमतार्थ ग्राही २०
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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