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________________ नयरहस्ये व्यवहारनयः १३५ स्थापनां नेच्छत्ययमिति केचित् , तेषामाशयं न जानीमः । न हीन्द्रप्रतिमाया नेन्द्रव्यवहारो भवात, न वा भवन्नपि भ्रान्त एव, न वा नामादिप्रतिपक्षव्यवहारसायमस्तीत्यर्धजरतीयमेतत् यदुत लोकव्यवहारानरोधित्वं स्थापनाऽनभ्युपगन्तृत्वं चेति ॥३॥ [व्यवहारनय में स्थापनानिक्षेप के समर्थन मे शंका-समाधान ] (अयमपीत्यादि) नैगम और संग्रहनय जैसे नामादि निक्षेप चतुष्टय को मानते हैं, उसीतरह यह व्यवहारनय भी नामादि सकल निक्षेपों को मानता है। (स्थापनां) कितने आचार्य ऐसा मानते हैं कि व्यवहारनय स्थापनानिक्षेप को नहीं मानता है, परन्तु वे किस आशय से ऐसा कहते हैं यह मालूम नहीं पड़ता। यदि इन्द्रप्रतिमारूप स्थापना में इन्द्रव्यवहार न होता हो तो उन आचार्यो का कथन आदरणीय भी हो सके, परन्तु ऐसा नहीं है । इन्द्रप्रतिमा में ईन्द्र का व्यवहार आबाल-गोपाल सभी करते हैं, इसलिए व्यवहारनय का स्थापनानिक्षेप स्वीकार सर्वानुभवसिद्ध है, उस का अपलाप नहीं हो सकता, अतः उन आचार्यों का कथन संगत नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-'इन्द्रप्रतिमा में जो इन्द्रव्यवहार होता है, वह भ्रान्त है, अतः उस से स्थापना का अभ्युपगम व्यवहारनय में नहीं सिद्ध हो सकता'-परन्तु यह कथन उचित नहीं मालूम पडता, क्योंकि इन्द्रप्रतिमा मे होनेवाले इन्द्रव्यवहार को उसी दशा मे भ्रान्त मान सकते हैं यदि उक्त व्यवहार का बाध किसी प्रमाण से होता हो ऐसा तो दिखता नहीं है. इसलिए इन्द्रप्रतिमा में इन्द्रव्यवहार को भ्रान्त मानना निर्मूल है। यदि यह कहा जाय कि-'स्थापनानिक्षेप का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी जो नामादि निक्षेप उस का भी व्यवहार इन्द्रप्रतिमा में होता हैं, इसलिए स्थापनाव्यवहार का नामादिव्यवहारों के साथ सांकर्य ता है, अतः असंकीर्णस्थापनानिक्षेप का अभ्युपगम व्यवहारनय में नहीं हो सकता है। इस आशय से कतिपय आचार्यों का कथन संगत हो सकता है'-तो ऐसा कहना अत्यन्त अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि इन्द्रप्रतिमा में, द्रव्यनिक्षेप तथा भावनिक्षेप का व्यवहार कोई करता हो ऐसा अनुभव में नहीं आता । अतः नामादिव्यवहार का सांकर्य स्थापना व्यवहार में है ही नहीं। तब तो व्यवहारनय स्थापना को नहीं मानता है, ऐसा कहने में कोई युक्ति विचार करने पर भी देखने में नहीं आती है, इसलिए उन आचार्यो का मत असंगत है। दूसरी बात यह है कि व्यवहारनय को लोकव्यवहारानुरोधि मानना और स्थापना का अभ्युपगम त्यवहारनय मे न मानना यह अर्धजरतीय है ।* * "अर्धजरती" एक न्याय है, उस में "जरती" शब्द वृद्धावस्थावाली स्त्री का वाचक है। जो स्त्री वृद्धावस्था को प्राप्त होती है उस स्त्री के सम्पूर्ण शरीर में वृद्धावस्था रहती है । ऐसी स्त्री देखने में नहीं आती जिसके शरीर का अर्धभाग वृद्धावस्था में हो और दूसरा अर्धभाग युवावस्था में हो । इसलिए "अर्धजरती" कोई स्त्री हो ऐसा सम्भव नहीं है, अतः अर्धजरतीय न्याय असम्भव का द्योतक है । प्रकृत में व्यवहारनय को लोकव्यवहारानुरोधि सभी कोई मानते हैं, इसलिए स्थापनानिक्षेप का अभ्युपगम भी व्यवहारनय में मानना आवश्यक है क्योंकि इन्द्रादि प्रतिपा में इन्द्र आदि का व्यवहार लोक में प्रसिद्ध है । स्थापनानिक्षेप को माने विना लोकन्यवहारानुरोधित्व का व्यवहारनय में असम्भव है जैसे किसी स्त्रीशरीर में अर्धजरतीत्व का सम्भव नहीं है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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