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________________ १३४ उपा. यशोविजयरचिते कुण्डिका स्रवति, पन्थाः गच्छतीत्यादी बाहुल्येन गौणप्रयोगाद् 'उपचारप्रायः' विशेषप्रधानत्वाच्च 'विस्तृतार्थ' इति । अयमपि सकलनिक्षेपाभ्युपगमपर एव ॥ पञ्चवर्ण प्रकाररूप से भासित होता है । इसलिए भ्रमरनिष्ठविशेष्यतानिरूपित पञ्चवर्णनिष्ठा प्रकारतारूपा जो विषयता है वह पञ्चवर्मतारूप है, उस पञ्चवर्णत्वाख्यविषयता में व्यावहारिकत्व नहीं है क्योंकि भ्रमर में पञ्चवर्णता का व्यवहार कोई नहीं करता है, अतः “पञ्चवर्णो भ्रमरः” इस वाक्य में व्यावहारिकत्व नहीं आता है, इसलिए “पञ्चवर्णो भ्रमरः" इस वाक्य को व्यहारनयानुरोधी मानना संगत नहीं है। इतने ग्रन्थ से व्यवहारनय में लौकिकसमत्व का समर्थन ग्रन्थकार ने किया है। [ व्यवहारनय में उपचारबहुलता का निदर्शन ] (कुण्डिका) तत्त्वार्थभाष्योक्त व्यवहार के लक्षण में जो “उपचारप्रायः" यह विशेषण लगाया गया है, उस का अभिप्राय यह है कि व्यवहार की दृष्टि से अधिकांश प्रयोगों में उपचार का आश्रय किया जाता है, इसलिए यह नय उपचारप्राय कहा जाता है । जैसे-“कुण्डिका स्रवति" यह प्रयोग है, इस का अर्थ यह है कि कुण्डिका बहती है, किंतु ऐसा देखने में आता नहीं है क्योंकि कुण्डिका द्रवीभूत वस्तु नहीं है, जल, दूध, घृत, तैल आदि जो द्रवीभूत वस्तु हैं इन्हीं का अपने आश्रय से छिद्र द्वारा बहिनिसरणरूप स्रवण या बहना देखने में आता है । कुण्डिका का स्रवण सम्भवित नहीं है तो भी "कुण्डिका स्रवति" ऐसा जो व्यवहार होता है वह उपचार से ही होता है। अन्यत्र दृष्ट अर्थ का अन्य में आरोप करना ही उपचारपदार्थ है। यहाँ जल, दूध आदि का ही छिद्रद्वारा बहिनिःसरणरूप स्रवणपदार्थ दृष्ट है, उस का कुण्डिका में आरोप करके "कुण्डिका स्रवति' यह व्यवहार किया जाता है, इसलिए वह औपचारिक है । इसीतरह मार्ग तो चलता नहीं है, किन्तु मार्ग में स्थित पथिक लोग चलते हैं, मार्ग तो स्थिर पदार्थ है, गमनक्रिया जंगम वस्तु में होती है, तो भी पथिक में दृष्ट गमनक्रिया का मार्ग में आरोप करके 'रास्ता जाता है' यह प्रयोग किया जाता है, इसलिए ऐसा प्रयोग भी औपचारिक ही है। (विशेषप्रधानत्वाच्च) भाष्योक्त लक्षण में “विस्तृतार्थः” इस विशेषण का अभिप्राय यह है कि जिस अभिप्राय विशेष का विषयभूत अर्थ विस्तृत है, विस्तीर्ण या विशाल है, उस अभिप्रायविशेष को व्यवहारनय कहा जाता है । व्यवहार का विषयभ्रत अर्थ विस्मत क्यों है, इस का कारण यह है कि व्यवहारनय सामान्यापेक्षया विशेष को ही प्रधान मानता है। वह विशेष सामान्य की अपेक्षा से अधिक संख्यावाला है, इसलिए विशेषग्राहा व्यवहारनय का अर्थ विस्तृत है । " संग्रहनय" सामान्यग्राहा माना गया है, उस का विषय सामान्य है, वह अल्पसंख्यक है, अतः वह अल्पार्थविषयक है । संग्रह की अपेक्षा से व्यवहार इसीलिए विस्तृतार्थ कहा जाता है । यहाँ तक भाष्योक्त लक्षण में स्थित पदों के अर्थ का विवरण ग्रन्थकारने किया है, इस वस्तु का सूचक मूल में "इति" शब्द है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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