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________________ १३६ उपा. यशोविजयरचिते प्रत्युत्पन्नग्राह्यध्यवसायविशेष ऋजुसूत्रः ॥ “पच्चुप्पण्णग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वा" ॥त्ति [अनु. द्वार-१५२] प्रत्युत्पन्न ग्राहित्वं च भावत्वेऽतीतानागतसम्बन्धाभावव्याप्यत्वोपगन्तृत्वम् , नातोऽतिप्रसङ्गः । वर्तमानक्षणसम्बन्धवदतीतानागतक्षणसम्बन्धोऽपि कथं न भावानामिति चेत् ? विरोधात् । 'अतीतत्वानतीतत्वयोरेव विरोधो न त्वतीतत्वानागतत्वयोरिति चेत् ? न अनागतत्वेनानतीत्वाक्षेपात् । 'अतीतानागताकारज्ञानदर्शनाद विरोध' इति चेत् ? न, प्रत्यक्ष तथाकारानुपरागात् , प्रबुद्धवासनादोषजनिततथाविकल्पाच्च वस्त्वसिद्धेः । 'अनुभवाविशेषे विकल्पाविशेष' इति चेत् ? न, उपादानव्यक्तिविशेषेणोपादेयव्यक्तिविशेषादित्यन्यत्र विस्तरः । [प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रनय ] (प्रत्युत्पन्न०) प्रत्युत्पन्नग्राही प्रत्युत्पन्नवस्तु का ग्रहण, जिस अध्यवसायविशेष से होता है, उस अध्यवसाय विशेष को ऋजुसूत्रनय कहते हैं । इस वाक्य में "ऋजुसूत्र" पद से लक्ष्य का निर्देश किया गया है । 'प्रत्युत्पन्नग्राही-अध्यवसायविशेष' इन दोनों पदों से लक्षण का निर्देश किया गया है । ऋजुसूत्र इस लक्ष्यसूचक पद के अर्थ का विचार करने पर जो अर्थ लक्ष्यसूचक पद से निकलता है, उसी अर्थ को लक्षण सूचक दोनों पदों मे स्फुटित किया गया है । "ऋजु-अवक्र वस्तु सूत्रयति" इस व्युत्पत्ति के अनुसार अवक्रवस्तु को ऋजुसत्र नय सूचित करता है । इस नय की दृष्टि से जो वस्तु वर्तमान और स्वकीय है वही वस्तु ऋजु अर्थात् अवक्र है, और जो वस्तु अतीत, अनागत और परकीय हैं वे सभी वक्र है । इन में अतीत और अनागत असत् होने के कारण वक्र हैं, और परकीय वस्तु निष्प्रयोजनत्व के आधार पर वक्र सिद्ध होती है, जैसे परकीय धन से अपना मतलब कुछ भी सिद्ध नहीं होता है वैसे ही परकीय वस्तु से अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है अतः असत् तुल्य होने से परकीय वस्तु भी वक्र ही है । इस रीति से ऋजु तो वही है जो वर्तमान और स्वकीय है, उसी का ग्राहक यह नय है । “प्रत्युत्पन्नग्राही" इस लक्षण घटक पद में 'उत्पन्न" शब्द वर्तमानकालीन वस्तु का बोधक है और “प्रति" शब्द स्वकीयत्व का बोध करता है । “प्रति' शब्द सन्निकर्षवाची है, सन्तिक और सम्बन्ध ये दोनों पद पर्यायवाचक हैं। वर्तमान वस्तु का सम्बन्ध आकांक्षावशात् स्वकीय आत्मा के साथ यहाँ विवक्षित है इसलिये 'स्वात्मसम्बन्धि वर्तमानवस्तु' यह फलितार्थ हुआ । वही वस्तु ऋजु या अवक्र है, उस का ग्राहक अध्यवसायविशेष ही "ऋजुसूत्र" का लक्षण है । ग्रन्थकार स्वकृत लक्षण को समर्थित करने के लिए प्रमाणरूप से “विशेषावश्यक भाष्य गाथा सूत्र (२१८९) उधृत करते हैं । “पच्चुप्पण्णग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो' ॥ त्ति ॥ "प्रत्युत्पन्नग्राही" शब्द ग्रन्थकार के लक्षण में और विशेषावश्यक सूत्र में समानरूप से आता है और समान अर्थवाचक है क्योंकि "प्रत्युत्पन्न" शब्द का अर्थ सूत्र में भी वर्तमान और स्वकीय वस्तुरूप ही विवक्षित है । इस हेतु से सूत्रकार के लक्षण से इस को पूरा समर्थन प्राप्त है।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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