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________________ ĖT उपा. यशोविजयरचिते करोति, न तु सामान्यम्, अर्थक्रियाऽहेतोस्तस्य शशशृङ्गप्रायत्वात् । “घटोऽयं द्रव्यमि - त्यादौ भासमानं घटत्वद्रव्यत्वादिकं कथमपह्नोतु शक्यमिति चेत् न कथञ्चित्, अन्यापोहरूपं तत्, न त्वतिरिक्तमित्येव परमुच्यते, अखण्डाभावनिवेशाच्च नान्योन्याश्रयः। यदि चैवमप्यभावसामान्याभ्युपगमापत्तिः, तदा तु सर्वत्र शब्दानुगमादेवानुगतव्यवहारः, कारणत्वव्याप्त्यादौ परेणापीत्थमेवाभ्युपगमादित्यादिकं प्रपञ्चित मन्यत्र । है । घटपटादिरूप विशेषों से ही लौकिक व्यवहार होते हैं, इसलिए विशेषविषयक अभिप्राय ही व्यवहार का कारण बनता है । घटत्वादि सामान्यों से जलाहरणादि रूप लौकिकव्यवहार सम्भवित नहीं हैं, इसलिए सामान्यविषयक अभिप्राय व्यवहारनय का लक्षण नहीं बनता, किन्तु विशेषविषयक अभिप्राय ही व्यवहारनय का लक्षण बनता है । इस लक्षण को प्रमाणित करने के लिए विशे० नियुक्ति गाथा - २१८३ में उल्लिखित " वच्चइ विणि०" इत्यादि अनुयोग द्वार सूत्र का उद्धरण अपने ग्रन्थ में करते हैं । "लोको व्यवहारपरो विशेषतो यस्मात्तेन व्यवहारः”, इसतरह व्यवहारपद की व्याख्या बृहद्वृत्ति में दी गई है। इस का अर्थ यह होता है कि जिस नय के अनुसार लोग विशेषरूप से व्यवहारपरायण होता है, वह व्यवहारनय कहा जाता है । यह व्यवहारपरायणता लोग में विनिश्चित अर्थ की प्राप्ति के बिना सम्भवित नहीं हो सकती है, इसलिए सूत्रकार ने यह बताया कि सभी द्रव्यों व्यवहारनय विनिश्चित अर्थ को प्राप्त करता है । निश्चित अर्थ की प्राप्ति का मतलब यह है कि व्यवहारनय विशेषों का ही व्यवस्थापन करता है, उस के बाद लोकव्यवहार की प्रवृत्ति होती है । यह नय सामान्य को स्वीकार न कर के विशेष का स्वीकार करता है, यही विनिश्चितार्थप्राप्ति है। सूत्र का ऐसा अर्थ करने से व्यवहारनय में लौकिक व्यवहार कारणता सिद्ध होने से ग्रन्थकार कृत लक्षण को समर्थन मिलता है । यह नय सामान्य का अभ्युपगम नहीं करता है, इसीलिए “विशेषेण अवद्दियते-निराक्रियते सामान्यमनेन" इसप्रकार का बृहद्वृत्ति में दिया हुआ सामान्य का विशेषरूप विशेषों को ही यह नय व्यवहार पद का निर्वचन भी सङ्गत होता है, क्योंकि यह नय से निराकरण करता है । जलादि आहरण में उपयोगी घटरूप मानता है, सामान्य को नहीं मानता है । क्योंकि घटत्व-पटत्वादि सामान्य जलाहरणादिरूप अर्थक्रिया में हेतु नहीं बनते हैं, इसलिए घटत्वादि सामान्य, व्यवहार की दृष्टि से शशश्रृङ्गतुल्य हैं, अर्थात् असत् हैं । [ व्यवहार नय में सामान्य अन्यापोह रूप ] यदि कहे कि "यह घट है- यह द्रव्य है" इत्यादि प्रतीतियों में घटत्व द्रव्यत्वादि सामान्य भासमान होते हैं इसलिए सामान्य का अपलाप कैसे हो सकता है ? अनुभवसिद्ध वस्तु का अपलाप कोई भी विचारक व्यक्ति नहीं करता है, यदि अनुभवसिद्ध वस्तु का भी अपलाप करेंगे तो सामान्य के जैसे विशेष भी असत् बन जाएँगे। तब तो सर्व शून्यवादी माध्यमिक मत में स्याद्वादी का भी प्रवेश हो जायगा, इस से सिद्धान्त हानि का प्रसङ्ग
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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