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________________ १२६ नयरहस्ये व्यवहारनयः स्यादेतत् , षण्णां प्रदेशस्वीकर्तु.गमात् पञ्चानां तत्स्वीकार इवात्रापि चतुर्निक्षेपस्वीकर्तुस्ततस्तत्त्रयस्वीकारेणैव संग्रहस्य विशेषो युक्त इति । मैवम् , देशप्रदेशवत् स्थापनाया उपचरितविभागाभावेन संग्रह विशेषादिति दिक् ॥२॥ लोकव्यवहारोपयिकोऽध्यवसाय विशेषो व्यवहारः । “वच्चइ विणिच्छियत्थं, ववहारो सव्वदव्वेसु ॥त्ति॥ [अनु० १५२] सूत्रम् । विनिश्चितार्थप्राप्तिश्चास्य सामान्यानभ्युपगमे सति विशेषाभ्युपगमात् । अत एव विशेषेणावहियते-निराक्रियते सामान्यमनेनेति निरुक्त्युपपत्तिः । जलाहरणाधुपयोगिनो घटादि विशेषानेवायमङ्गी यदि यह कहा जाय कि-"प्रदेश के विषय में नैगम और संग्रह में यही विशेष माना गया है कि नैगमनय धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, स्कन्ध और इन के देश इन छः वस्तु के प्रदेश मानता है और संग्रहनय धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और स्कन्ध इन पाँच वस्तुओं का ही प्रदेश मानता है, इसलिए षड्वस्तु सम्बन्धि प्रदेश स्वीकर्तृत्व नैगन का धर्म है, पञ्चवस्तुसम्बन्धिप्रदेश स्वीकर्तृत्व संग्रह का धर्म है, यही नैगम संग्रह का भेद है । वैसे ही निक्षेप के विषय में भी निक्षेपचतुष्टय स्वीकर्तृत्व नैगम में रहता है और निक्षेपत्रय स्वीकर्तृत्व सग्रह में रहता है, यही इन दोनों में विशेष है, ऐसा मानना चाहिए"-परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि नैगम उपचार को मानता है, इसलिए देश और प्रदेश में भेद की कल्पना करके देशों का भी प्रदेश मान लेता है । सग्रहनय उपचार को नहीं मानता है इसलिए देश और प्रदेश इन दोनों में उस के मत से भेद नहीं है । अतः देश का प्रदेश वह नहीं मानता है, इसीलिए धर्मादि पांच का ही प्रदेश संग्रहनय मानता है । अतः प्रदेश के विषय में इस रीति से नैगम और संग्रह का भेद सम्भवित है । स्थापना और नाम में तो उपचरित और मुख्य ऐसा विभाग नैगम ने नहीं माना है, इसलिए स्थापना को स्वीकार करने में संग्रह को बाधा नहीं है । यदि स्थापना में उपचार होता, तो संग्रह उस को नहीं मानता, यह बात अलग है। निष्कर्ष, संग्रह स्थापना का भी स्वीकार अवश्य करेगा । अतः निक्षेपचतुष्टय स्वीकर्तत्व और निक्षेपत्रय स्वीकर्तृत्व के भेद से नैगम की अपेक्षया संग्रह में विशेष मानना सम्भवित नहीं हो सकता है । तब निक्षेपचतुष्टय स्वीकर्तृत्व इन दोनों नयों में समान होने पर भी नैगम की अपेक्षया उपचारास्वीकर्तृत्व यह विशेष संग्रह में रहेगा । [संग्रहनय समाप्त ] [लोकव्यवहार साधक अध्यवसाय-व्यवहार नय ] (लोकव्यवहार) लोक में जो जलाहरणादि व्यवहार होता है, उस में औपयिक यानी उपायभूत जो अभिप्रायविशेष वहा व्यवहारनय है । इस लक्षण में व्यवहारपद व्यवहारनय का बोध करता हुआ व्यवहारनय में लक्ष्यत्व का निदे श करता है और अवशिष्ट दो पद व्यवहारनय के लक्षण बोधक हैं । जिस अध्यवसाय विशेष से जलाहरणादि जो लौकिकव्यवहार सम्पन्न होते हैं वही अभिप्रायविशेष व्यवहारनय का लक्षण फलित होता * व्रजति विनिश्चितार्थ व्यवहारः सर्वद्रव्येषु ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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