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________________ ११८ उपा० यशोविजयरचिते "अर्थानां सर्वैकदेशसंग्रहणं संग्रहः" इति तत्त्वार्थभाष्यम् (अ० १-३५) । अत्र सर्वसामान्यम् , एकदेशश्च विशेषस्तयोः संग्रहणं सामान्यकशेषस्वीकार इत्यर्थः। ____ अयं हि घटादीनां भवनानान्तरत्वात्तन्मात्रत्वमेव स्वीकुरुते, घटादिविशेषविकल्पस्त्वविद्योपजनित एवेत्यभिमन्यते । 'जगदैक्ये घटपटादिभेदो न स्यादिति चेत् ? न स्यादेव वास्तवः, रज्जो सर्पभ्रमनिबन्धनसर्पादिवद विद्याजनितोऽनिर्वचनीयस्तु स्यादेवेत्याद्या एतन्मूलिका औपनिषदादीनां युक्तयः ॥ संग्रहनय को पर सामान्य और अपर सामान्यरूप अर्थ ही मान्य है, इसलिए नैगमादि अभ्युपगत विशेष और अशुद्ध अर्थ का त्याग हो जाता है । [तत्वार्थभाष्य के अनुसार संग्रहनय की व्याख्या ] (अर्थानामित्यादि) उपाध्यायजी स्वप्रदर्शित संग्रहनय के लक्षण को विशेषावश्यक भाष्य ग्रंथद्वारा समर्थित कर के अधिक प्रमाणित करने के लिए तत्त्वार्थभाष्य का उद्धरण करते हैं। तत्त्वार्थ भाव्यकृत लक्षण में "सर्व" पद से सामान्य विवक्षित है, जो सत्तारूप परसामान्य पूर्व में बता चुके हैं। "एक देश' पद से विशेष विवक्षित है, ये दोनों सामान्य-विशेष नैगम अभ्युपगत अर्थ हैं, इन का एकीभावेन संग्रहण जिस अध्यवसाय से होवे, वही संग्रहनय है । सूत्र में जो संग्रहणपद है उस का अर्थ है-सामान्यैकशेष स्वीकार । सामान्य और विशेषात्मक नैगमाभ्युपगत अर्थो में यदि एक सामान्यमात्र शेष रहे तो विशेष का अस्वीकार सिद्ध हो जाता है। इस का अभिप्राय यह है कि सामान्य में ही विशेष संपुञ्जित हो जाता है, अर्थात् सामान्य के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है, तब संग्रहनय सामान्यमात्रग्राही बनता है। उपाध्यायजी के लक्षण में भी संग्रहपद से विशेष और अशुद्धविषय का विनिर्मोक बताया गया है इसलिए सामान्यमात्रग्राहिता संग्रह में सिद्ध होती है। अतः तत्त्वार्थभाष्य से भी ग्रन्थकार प्रोक्त लक्षण को समर्थन मिल जाता है। _[संग्रहनय के अनुसार सत्ता से इतर सभी विशेष आविद्यक हैं ] (अयं हि) प्रस्तुत ग्रन्थ से ग्रन्थकार संग्रहनय में सामान्यमात्र ग्राहिता कैसे सिद्ध होती है-इस का विवेचन करते हैं। संग्रहनय घटादिविशेषों को सत्ता से अतिरिक्त नहीं मानता है, अतः सत्तास्वभाव सामान्यमात्र का स्वीकार करता है। मूल ग्रन्थ में “भवन" शब्द से सत्तारूप अर्थ विवक्षित है । भू धातु सत्ता अर्थ में प्रसिद्ध है, इसलिए भवन शब्द का सत्ता अर्थ होना स्वाभाविक है । यदि यह कहा जाय कि-'संग्रहनय यदि सामान्यमात्र स्वीकार करता है तो घटादि सभी वस्तुओं में 'यह सत् है' ऐसी प्रतीति तो होगी, परन्तु लोक में “यह घट है, यह पट है" इसतरह की विशेषावगाहिनी प्रतीति जो होती है वह न होगी क्योंकि सामान्यातिरिक्त घटपटादि रूप विशेष इस की दृष्टि में है ही नहीं। तब तो लोकप्रसिद्ध अनुभव का बाध संग्रहनय के मत में उपस्थित होगा।परन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि "यह घट है, यह पट है" इत्यादि विशेषविषयक
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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