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________________ नयरहस्ये संहग्रनयः ११७ * "संगहियपिडियत्थं, संगहवयणं समासओ विति" ॥ त्ति [अनु० द्वार१५२-२] सूत्रम् । अत्र संगृहीतं सामान्याभिमुखग्रहणगृहीतं पिण्डितं च विवक्षितैकजात्युपरागेण प्रतिपिपादयिषितमित्यर्थः । संगृहीतं महासामान्यं, पिण्डितं तु सामान्य विशेष इति वाऽर्थः । रहती है । इसलिए विशेष और अशुद्ध विषय के निराकरण में इस का व्यापार न होने पर भी उक्तलक्षण की अव्याप्ति का प्रसङ्ग नहीं होता है । [ संगृहीत-पिण्डितार्थ वचन-संग्रहनय ] (संगहिय.) उपाध्यायजी ने संग्रहनय का लक्षण बताया है उस को प्रमाणित करने के लिए “विशेषावश्यक भाष्य" की (२१८३) गाथा के पूर्वार्ध को प्रमाणरूप से यहाँ उद्धृत किया है । 'संगृहीतपिण्डितः-अर्थो यस्य तत् संगृहीतपिण्डितार्थ म्' ऐसा बहु. व्रीहि समास यहाँ अभिप्रेत है । संगहियमागहीय सपिडियमेगजाइमाणीयं ॥ (२२०४ गाथा) विशेषावश्यक भाष्य के पूर्वार्ध की व्याख्या में बहुव्रीहि समास का ही निर्देश किया है । “मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि" ने स्वरचित बृहदवृत्ति में “आगृहीत” इस पद का अर्थ "सामान्याधिमुखेण आग्रहणम्” ऐसा किया है । तदनुसार ही ग्रन्थकार ने भी दोनों पदों का अर्थ बताया है । यहाँ बहुव्रीहि समास करने में पूर्वपदार्थ को उत्तर पदार्थ के प्रति हेतु मान कर व्याख्या की गई हो ऐसा अभिप्राय लगता है क्योंकि सामान्याभिमुख ज्ञान से गृहीत होने पर ही वस्तु में एकजातिमत्त्व की प्राप्ति होती है, जो पिण्डित शब्द का अर्थ है । उपाध्यायजी ने भी विवक्षित एकजाति के उपराग से प्रतिपादन के लिए अभिलषित वस्तु को ही पिण्डित शब्द का अर्थ बताया है, वह तभी सम्भव हो सकता है यदि वह वस्तु सामान्याभिमुख ग्रहण से गृहीत हो । सग्रहनय का वचन ही विवक्षित एकजाति के उपराग से वस्तु का बोधक बनता है । यहाँ उपराग शब्द से सम्बन्धरूप अर्थ विवक्षित है। एक जाति सम्बद्ध अर्थ का प्रतिपादन संग्रहवचन तभी कर सकता है जब नैगमादि उपगत अर्थ जो विशेषरूप है और अशुद्धविषयरूप है उस का विनि कि अर्थात त्याग कर दे । अतः इस भाष्य गाथा के व्याख्यान से उपाध्यायजी कथित लक्षण को समर्थन प्राप्त हो जाता है। __"संगृहीत-पिण्डितार्थ म्” इस भाष्य की दूसरी व्याख्या उपाध्यायजी बताते हैं कि जिस में संग्रहीत शब्द का अर्थ महासामान्य, जिस का दूसरा नाम सत्तारूप सामान्य हैं और "पिंडित" शब्द का अर्थ सामान्य विशेष अर्थात् गोत्वादि अवान्तर सामान्य है। इस व्याख्या के अनुसार बहुव्रीहि समास करने पर 'सामान्य सत्ता और अपर सामान्य गोत्वादि अर्थ है जिस का, ऐसे वचनवाला नय संग्रहनय है' यह लक्षण निकलता है। उपाध्यायजी का यह व्याख्या "X अहव महासामन्नं संगहियत्थपिडियत्थमियरं ति" (२२०६) इस विशेषावश्यक भाव्य गाथा की बृहदवृत्ति के अनुसार है । इस व्याख्या के अनुसार * संग्रहीत-पिण्डतार्थ संग्रहवचन समासतो अवन्ति । x अथवा महासामान्य संगृहीत पिण्डितार्थमितर इति ।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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