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________________ नयरहस्ये निक्षेपविचारः अस्यापि चत्वारो निक्षेपा अभिमताः । ये त्वाहुर्नायं स्थापनामिच्छति, संगहप्रवणेनानेन नामनिक्षेप एव स्थापनाया बुद्धि अविद्यारूप दोष से ही उत्पन्न होती है, इसलिए वे बुद्धियाँ भ्रमरूप है, अर्थात "अय घटः” इत्यादि विशेषविषयक प्रमाणबुद्धि संग्रहनय की दृष्टि से प्रमाणभूत नहीं है । [विशेष साध्य व्यवहारों के अभावप्रसंग का समाधान ] यदि यह आशंका उठे कि-'संग्रहनय यदि सत्तास्वभाव सामान्यमात्र को स्वीकार करता है, तो वह सत्ता एक है, उस के उपराग से ही जगत का प्रतिपादन इस मत में हो सकेगा, तब सत्तारूप जगत में एकत्व ही रहेगा। इस स्थिति में व्यवहार में उपयक्त होनेवाले जो घटपटादि विशेष भासते हैं, वे नहीं होंगे, तब विशेषप्रयुक्त व्यवहार का भी अभाव प्रसंग इस मत में होगा।'-इस का समाधान इसप्रकार है कि वास्तविक घटपटादि रूप विशेष तो इस मत में नहीं है, जो घट-पटादिभेद भासित होते हैं, वे अविद्याजनित अनिर्वचनीय हैं । जिस का सत् रूप से अथवा असत् रूप से कथन सम्भवित न हो सके वह वस्तु अनिर्वचनीय कही जाती है । जैसे-रज्जु में जब सर्प का भ्रम होता है तब उस भ्रम ज्ञान में भासमान सर्प अनिर्वचनीय है क्योंकि उस सर्प को सत् नहीं कह सकते हैं। यदि उस को सत् माने गे तो उस का बाध न होगा । रज्जु-ज्ञान होने पर सर्व भ्रम की निवृत्ति होने के बाद उस का विषय सर्प भी बाधित होता है, सवस्तु का बाध तो नहीं होना चाहिए, इसलिए वह सत् नहीं कहा जा सकता है । उस भ्रमविषय सर्प को असत् भी नहीं कह सकते, क्योंकि उस की प्रतीति होती है । असत् गगन कुसुमादि की प्रतीति किसी को नहीं होती है, इसी तरह वह सर्व भी यदि असत् होगा तो उस की प्रतीति नहीं होगी। अतः वह सर्प अनिर्वचनीय माना जाता है। इसी दृष्टान्त से 'घटपटादि' विशेष भी अनिर्वचनीय सिद्ध होते हैं । घटपटादि विशेष यदि सत् माने जाएँगे तो उन का बाध न होगा और असत् माने जाएँगे तो उन की प्रतीति नहीं होगी। बाध और प्रतीति घटपटादि विशेषों में दृष्ट है, इसलिए वे सतअसत् इन दोनों से विलक्षण है, अतएव अनिर्वचनीय और अविद्या से कल्पित हैं। संग्रहनय की दृष्टि से यह बात कही गयी है। औपनिषद (वेदान्ति) की भी ऐसी ही मान्यता है । वे लोग एक सत् रूप ब्रह्म की सत्ता वास्तविक मानते हैं, उस से भिन्न घटपटादि जगत की सत्ता वास्तविक नहीं मानते हैं । घटपटादि भेदों को अविद्याकल्पित मानते हैं । “एकमेवाऽद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन" इत्यादि श्रति को अपने मत के समर्थन के लिए प्रमाणरूप से उपस्थित करते हैं और तदनुकूल युक्तियों का भी उपयोग करते हैं, वे सभी युक्तियाँ औपनिषदों की संग्रहनय मूलक ही हैं, अर्थात् संग्रहनय की मान्यता के अनुसार अपने दर्शन का समर्थन वेदान्तिलोक करते हैं । इसलिए संग्रहनय ही वेदान्त दर्शन की प्रवृत्ति का मूल है ऐसा समझना चाहिए। [ संग्रहनय को चार निक्षेप अभिमत ] (अस्यापि इत्यादि) जैसे नैगमनय नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन चार निक्षेपों को मानता है, उसी तरह संग्रहनय को भी ये चारों निक्षेप मान्य हैं।
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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