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________________ नयरहस्ये निक्षेपविचारः अन्त्ये "जत्थवि य ण जाणिज्जा, चउक्कयं णिक्विवे तत्थ" ॥त्ति (अनु० द्वार-सू० ७) सूत्रविरोधः, अत्र यत्तत्पदाभ्यां व्याप्त्युपस्थितेरिति चेत् ? वह पदार्थ अनभिलाप्य है । ऐसे अनभिलाप्य बहुत से पदार्थ हैं, जिन का नामकरण नहीं हो सकता है, इसलिए ऐसे पदार्थों में नामनिक्षेप की प्रवृत्ति नहीं होती और उन में वस्तुत्व तो रहता है, अतः व्यभिचार होता है । इसलिए जहाँ जहाँ वस्तुत्व है वहाँ वहाँ निक्षेप चतुष्टय रहता है, इस तरह की व्याप्ति से गर्भित प्रथम विकल्प मानना ठीक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'जहाँ-जहाँ अभिलाप्य वस्तुत्व है, वहाँ वहाँ निक्षेपचतुष्टय है। इस तरह की व्याप्ति को ही प्रथम विकल्प के गर्भ में हम विवक्षित करेंगे, तब तो अनभिलाप्य पदार्थों में व्याप्यत्वेन अभिमत अभिलाप्यवस्तुत्व न रहने से यदि वहाँ नामनिक्षेप न रहेगा, तो भी व्यभिचार का प्रसङ्ग नहीं आएगा, क्योंकि अभिलाप्य वस्तुत्वरूप व्याप्य जिन-जिन पदार्थों में रहता है उन उन पदार्थों में निक्षेपचतुष्टय प्रवृत्त होता ही है । परन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है । कारण, जहाँ जहाँ अभिलाप्य वस्तुत्व रहता है, वहाँ वहाँ नामनिक्षेप के रहने पर भी द्रव्यनिक्षेप सर्वत्र नहीं रहता है। जैसे-जीव में अभिलाप्यवस्तुत्व है, परन्तु जीव का द्रव्य निक्षेप नहीं होता, क्योंकि कोई पदार्थ ऐसा होता जो पुर्व काल में अजीव होता हुआ भी पश्चात् जीवभाव में परिणत होता तो वह र्थ द्रव्यजीव कहा जा सकता. परन्त वस्तस्थिति यह है कि जो पदार्थ पूर्व में जीव नहीं था वह जडस्वरूप ही होगा, और जड पदार्थ कभी भी जीवपरिणाम नहीं प्राप्त कर सकेगा क्योंकि जीव चेतन है और अजीव जड होता है। जड पदार्थ का चेतनात्मक परिणाम कभी भी सम्भव नहीं है। इसीतरह कोई भी जीव यदि पूर्व काल में जीवपर्याय का अनुभव कर के पश्चात् अजीवात्मक परिणाम को प्राप्त होता, तो वह भी द्रव्य जीव हो सकता था, परन्तु यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि चेतन जीव कभी अजीव अर्थात जडात्मक परिणाम को प्राप्त नहीं करता है। चेतन का अचेतनात्मक परिणाम भी अत्यन्त असम्भवित है। इसलिए जीव में द्रव्यनिक्षेप की प्रवृत्ति नहीं होती है और वहाँ व्याप्यत्वाभिमत अभिलाप्यवस्तुत्व तो रहता है अतः व्यभिचार स्पष्ट है । इसी रीति से द्रव्य में भी व्यभिचार उपस्थित होता है, कारण द्रव्य में अभिलाप्य वस्तुत्व रहता है, गुण और पर्याय से युक्त वस्तु को हा द्रव्य कहते हैं। उस का गुणपर्याय शून्य भावरूप से परिणाम हो सकता नहीं है, क्योंकि गुणपर्याययुक्त भाव का गुणपर्यायवियुक्तभावात्मक परिणाम अत्यन्त असम्भवित है। तब तो द्रव्य में भी द्रव्यनिक्षेप की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । इसलिए द्रव्यजीव की भांति द्रव्यद्रव्य भी अप्रसिद्ध है । द्रव्य में भी निक्षेप चतुष्टयरूप व्यापक नहीं रहता है, अभिलाग्यवस्तुत्वरूप व्याप्य तो रहता है, अतः अभिलाप्यवस्तुव्यापिता भी नामादि निक्षेपचतुष्टय में नहीं हो सकती। [ अव्यापकता पक्ष में सूत्रविरोध की शंका ] (अन्त्ये) 'नामादिनिक्षेप सर्ववस्तुव्यापि नहीं है, यह द्वितीय विकल्प भी नहीं मान सकते हैं, क्योंकि "जत्थवि य ण जाणिज्जा, चउक्कयं णिक्खवे तत्थ” इस अनुयोगद्वार
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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