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________________ १०० उपा. यशोविजयरचिते अत्र वदन्ति-तत्तद्वयभिचारस्थानान्यत्वविशेषणान्न दोषः । तदिदमुक्तम् , “यद्यत्रैकस्मिन्न सम्भवन्ति नैतावता भवत्यव्यापितेति' ॥ अपरे त्वाहुः, केवलिप्रज्ञारूपमेव नामाऽनभिलाप्यभावेष्वस्ति, द्रव्यजीवश्च मनुष्यादिरेव, भाविदेवादिजीवपर्यायहेतुत्वात् । द्रव्यद्रव्यमपि मृदादिरेव, आदिष्टद्रव्यत्वानां घटादिपर्यायाणां हेतुत्वादिति । सूत्र का विरोध इस पक्ष में उपस्थित होता है । 'जहाँ (कुछ अधिक) न जान सके वहाँ भी नामादि चतुष्टय का निक्षेप करना चाहिए', ऐसा इस सूत्र का अर्थ है। इस सूत्र में यत् और तत् पद का उपादान है। इसलिए व्याप्ति की उपस्थिति होती है, वह व्याप्ति यही है कि जहाँ जहाँ वस्तुत्व है, वहाँ वहाँ निक्षेप चतुष्टय की प्रवृत्ति होती है । इस व्याप्ति से निक्षेप चतुष्टय में सर्व वस्तु व्यापकता का लाभ होता है । द्वितीय विकल्प से तो नामादि में सर्व वस्तु व्यापकता के अभाव का विधान होता है, अतः सूत्र और द्वितीय विकल्प इन दोनों का विरोध स्पष्ट ही देखने में आता है । [ व्यापकता में संकोच मान कर समाधान ] (अत्र वदन्ति) यहाँ कोई आचार्य ऐसा समाधान करते हैं कि सूत्र का विरोध होने से द्वितीय विकल्प का स्वीकार तो नहीं हो सकता है, तो भी 'नामादि चतुष्टयों में सर्ववस्तुव्यापकत्व है,' इस प्रथम विकल्प को स्वीकार करने में बाधा भी नहीं है । अनभिलाप्यभावों में नामनिक्षेप का व्यभिचार तथा जीव और द्रव्य में द्रव्य निक्षेप का व्यभिचार जो पूर्व में दिया गया है, उस का वारण "तत्तव्यभिचारस्थानान्यत्वे सति वस्तुत्व यत्र यत्र, तत्र तत्र नामादिचतुष्टयम्" इसतरह की व्याप्ति का स्वीकार कर लेने पर हो सकता है । तब तो प्रथम विकल्प ठीक ही है, ऐसी व्याप्ति मानने से अनभिलाप्य भाव भिन्न और जीव तथा द्रव्य भिन्न वस्तु में नामादि व्यापिता रहती है, इसलिए कोई दोष नहीं है । इस बात में अभियुक्त का वचन भी प्रमाण है । जिस का आशय यह है कि व्यापकत्वेन अभिमत पदार्थ यदि किसी एक अधिकरण में न रहता हो, इतने मात्र से व्यापकत्वाभिमत में अव्यापिता नहीं आ जाती है, अर्थात् व्याप्ति का भङ्ग नहीं हो जाता है। "व्यभिचारस्थानान्यत्व" यह विशेषण व्याप्य में लगा देने से ही व्यभिचार का वारण हो जाता है। - [अन्य मत से पूर्ण व्यापकता की उपपत्ति की आशंका ] (अपरेत्वाहुः) नामादि निक्षेपों को सर्व वस्तुव्यापित्व माननेवाले कोई आचार्य का कहना यह है कि अनभिलाप्यभावों में नामनिक्षेप का व्यभिचार जो दिया गया है, वह युक्त नहीं है क्योंकि केवलिप्रज्ञारूप नाम अनभिलाप्यभावों में भी रहता है । केवलज्ञानी सभी पदार्थो को जानते हैं, इसलिए वे अनभिलाप्यभावों को भी अवश्य जानते हैं, अतः केवलिप्रज्ञारूप नाम से वाच्य जो केवलज्ञान वह विषयतासम्बन्ध से अनभिलाप्यभावों में रहता है। अतः नामनिक्षेप की सर्व वस्तुव्यापिता सिद्ध हो जाती है। इस रीति से
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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