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________________ उपा. यशोविजय रचिते ननु नामादीनां सर्ववस्तुव्यापित्वमुपगम्यते, न वा ? | आधे व्यभिचारः, अनभिलाप्यभावेषु नामनिक्षेपाऽप्रवृत्तेः, द्रव्यजीव - द्रव्यद्रव्याद्यसिद्ध्या भिलाप्यभावव्यापिताया अपि वक्तुमशक्यत्वाच्च । ९८ घट के उपादान कारण मृत्-पिण्डादि को द्रव्यघट या घट का द्रव्य निक्षेप कहते हैं । यदि मृत पिण्डादिरूप द्रव्य को घट न माना जाय तो घट मृतपिण्ड का परिणाम है और मृत पिण्ड घट का परिणामी है इसतरह का परिणाम- परिणामी भाव, घट और मृतपिण्ड इन दोनों में नहीं होगा । इसलिए द्रव्यवट को भी घट मानना चाहिए और इन दोनों में कथञ्चिद् अभेद भी मानना चाहिए । अत्यन्त भेद मानने पर दोनों का परिणाम - परिणामी भाव ही नहीं बनेगा । जलाहरण साधनीभूत कम्बुग्रीवादिमान् घट को भावघट कहते हैं, इसी को भावनिक्षेप भी कहते हैं । कारण, इस में घट के गुण और पर्याय विद्यमान रहते हैं । यह सभी को मान्य है, इसलिए भावघट में घट पद की वृत्ति यानी शक्तिनामक संबंध होने में किसी को भी संदेह नहीं है । भाव निक्षेप को भी नैगमनय मानता है । इस तरह चारों निक्षेप नैगमनय को मान्य है । [ नामादि चारनिक्षेपों की व्यापकता पर आक्षेप ] ( ननु नामादी) नैगमनय नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों को मानता है । यह वस्तु उदाहरणों के द्वारा पूर्व ग्रन्थ से प्रदर्शित की गई है । इस प्रसंग में ये नामादिनय कहाँ-कहाँ प्रवृत्त होते हैं यह विचार भी करना आवश्यक हो जाता है, तदर्थ प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रवृत्ति होती है । इस में दो विकल्प पूर्वपक्षी उपस्थित करते हैं ।' ये नामादिनिक्षेप चतुष्टय सभी वस्तुओं में प्रवृत्त होते हैं - यह प्रथम विकल्प है और सभी वस्तुओं में प्रवृत्त नहीं होते हैं किन्तु अमुक वस्तुओं में ही प्रवृत्त होते हैं, यह द्वितीय विकल्प है । प्रथम विकल्प के अनुसार जहाँ जहाँ वस्तुत्व रहता है, वहाँ वहाँ सर्वत्र नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों की प्रवृत्ति होती है, ऐसा नियम बनेगा । इस नियम में वस्तुत्व व्याप्यरूप से और नामादि निक्षेप चतुष्टय व्यापकरूप से भासित होता है, परन्तु, इसतरह का नियम मानना सम्भवित नहीं है क्योंकि इस नियम में अनभिलाप्य पदार्थों में व्यभिचार देखने में आता हैं । पद-वाक्यादि से जिस का प्रतिपादन हो सके ऐसे परिणाम से परिणत अर्थ को 'अभिलाप्य' कहा जाता है, क्योंकि श्रुतज्ञान या तदधीन मतिज्ञान के विषयरूप में परिणत अर्थों का ही पद-वाक्यादि से प्रतिपादन किया जाता है । जैसे-घटपद घटरूप अर्थ का बोध कराता है, इसलिए ही घषद को श्रवण कर के घटरूप अर्थ में ही नियमतः श्रोता की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है । ऐसे ही गुड पद भी गुडरूप अर्थ का बोधन करता है । परन्तु, गुडगत माधुर्य और मधुगत माधुर्य इन दोनों में क्या भेद है इस का बोधन तो तभी हो सकता है कि जब गुडगत माधुर्य का और मधुगत माधुर्य का विशेषरूप से किसी पद के द्वारा अभिलाप हो सके, परन्तु कोई ऐसा पद नहीं है, जिस से गुडगत और मधुगत माधुर्य का विशेषरूप से बोध करा सके । अतः गुडादिगत माधुर्य की विशेषता का बोधक पद न होने से
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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