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________________ प्रेत्यभाव, फल, दुःख तथा अपवर्ग । न्याय का भी लक्ष्य आत्मा को शरीर इन्द्रियों तथा सांसारिक विषयों के बन्धन से मुक्त कराना है । आत्मा शरीर और मन से भिन्न है । शरीर का निर्माण भौतिक तत्त्वों के सम्मिश्रण से होता है । मन अणु एवं सूक्ष्म, नित्य तथा अविभाज्य है । मन आत्मा के लिये सुख दुःख आदि मानसिक गुणों के अनुभव के निमित्त एक करण है । अत: मन को अन्तरिन्द्रिय कहते हैं । जब आत्मा का इन्द्रियों के द्वारा किसी वस्तु से सम्बन्ध होता है तो उसमें चैतन्य का संचार होता है । चैतन्य आत्मा का कोई नित्य गुण नहीं, अपितु आगन्तुक गुण है । जब मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का किसी विषय से सम्बन्ध होता है तभी उस विषय का चैतन्य या ज्ञान आत्मा को होता है । मुक्त होने पर आत्मा इन सम्पर्कों से रहित हो जाता है। ज्ञान भी लुप्त हो जाता है । मन परमाणु के सदृश सूक्ष्मतम है, किन्तु आत्मा विभु, अमर तथा नित्य है । आत्मा ही सांसारिक विषयों में आसक्त या उससे अनासक्त तथा राग द्वेष करता है । . कर्मों के अच्छे बुरे फलों का उपभोग इसी को करना पड़ता है । मिथ्या ज्ञान, राग-द्वेष तथा मोह से प्रेरित होकर आत्मा अच्छा या बुरा कर्म करता है । उन्हीं के कारण आत्मा को पापमय या दुःखमय (दुःखग्रस्त) होना पड़ता है । उन्हीं के कारण वह जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है। तत्त्वज्ञान के द्वारा जब सभी दुःखों का अन्त हो जाता है तो मुक्ति होती है । इस अवस्था को 'अपवर्ग' कहते हैं । कुछ दार्शनिक कहते हैं कि यह अवस्था आनन्दमय होती है, किन्तु नैयायिक इसे नहीं मानते । मुक्त होने पर आत्मा तो चैतन्यहीन हो जाता है। तब सुख या दुःख किसी की भी अनुभूति नहीं रह सकती । नैयायिक ईश्वर के अस्तित्व को अनेक युक्तियों से सिद्ध करते हैं । ईश्वर संसार के सर्जन, पोषण तथा संहार का आदिप्रवर्तक है। ईश्वर ने विश्व का निर्माण शून्य से नहीं किया, अपितु परमाणु, दिक, काल, आकाश, मन तथा आत्मा आदि उपादानों से किया है । जीव अपने अपने पुण्यमय या 25 .
SR No.022471
Book TitleShaddarshan Samucchay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan
Publication Year2002
Total Pages146
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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