SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७३ -८३ ] सांख्यदर्शनविचारः सर्वत्र विद्यत इति वदतः सांख्यस्यैवाभिप्रायेण खरमस्तके विषाणादित्रैलोक्यसद्भावप्रसंगस्यानिवार्यत्वात् ।। अस्माकं तु मते तुरीवेमशलाकाकुविन्दकरव्यापारादिसहकारिसमवधाने तन्तवः प्रागविद्यमानं पर्ट जनयन्ति, नो चेन्न जनयन्ति । तेषां तदुपादानत्वेन तथाविधयोग्यत्वसद्भावात् । खरमस्तकं तु शतसहस्रसहकारिसमवधानेऽपि विषाणं ने जनयति। तस्य विषाणानुपादानत्वेन तज्जननयोग्यताभावात् । ननु कार्यजननयोग्यतास्यास्तीति अस्य नास्तीति कथं निश्चीयत इति चेत् एतज्जातीयकारणसद्भावे एतज्जातीयं कार्य समुत्पद्यते तदभावे नोत्पद्यत इत्यन्वयव्यतिरेकयोभूयो दर्शनादिति ब्रूमः। अन्वयव्यतिरेकयोभूयोदर्शनसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभाव इति न्यायात्। तस्मात् तत्त्वादिप्वविद्यमानस्य पटादेः कुविन्दादिभिः क्रियमाणत्वात् असदकरणादित्यसिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । पक्ष में यदि अभिव्यक्ति की उत्पत्ति हुई यह माना जाता है तो कार्य की ही उत्पत्ति मानने में क्या दोष है ? यदि असत् कार्य की उत्पत्ति माने तो गधे के सींग जैसे असत् पदार्थों की भी उत्पत्ति माननी होगी यह आक्षेप उचित नही । जिन कार्यों के उचित उपादान कारण होते हैं उन की उत्पत्ति होती है - तन्तु-उपादान से वस्त्र उत्पन्न होता है। गधे के सींग का कोई उपादान कारण नही है अतः उस की उत्पत्ति सम्भव नही है। यह दोष उचित कारण से उचित कार्य की उत्पत्ति माननेवाले मत में नही हो सकता। प्रत्युत एक कारण में सव कार्यों का अस्तित्व माननेवाले सांख्य मतमें ही यह दोष उपस्थित होता है। हमारे मत में तो यही माना है कि तन्तुरूप उपादान कारण से बुनकर, करघा आदि सहकारी कारणों के मिलने पर वस्त्ररूप कार्य उत्पन्न होता है। गधे के सींग का कोई उपादान ही नही है अतः कितने ही सहकारी कारण मिल कर भी उस की उत्पत्ति नही हो सकती। कारण में कार्य उत्पन्न करने की योग्यता है या नही यह कैसे जाना जाता है यह आक्षेप हो सकता है। उत्तर यह है कि इस प्रकार के कारण से यह कार्य उत्पन्न हुआ ऐसा बार बार देखने से ही कार्यकारणसम्बन्ध का ज्ञान होता है। अतः तन्तु आदि में अविद्यमान वस्त्र की उत्पत्ति होती है। अत एव 'असत् की उत्पत्ति नही होती' यह हेतु निरर्थक है। वि.त.१८
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy